35+ शिक्षाप्रद आध्यात्मिक बोध कथाएँ 2022 | लघु प्रेरक प्रसंग बोध कथा

आध्यात्मिक बोध कथाएँ और रोचक धार्मिक कथाएं ही तो है जिसने आध्यात्म को जिंदा रखा है कहानियों के माध्यम से आध्यात्मिक विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक गए हैं, आध्यात्मिक कहानियां और प्रेरक प्रसंग हमारी संस्कृति का हिस्सा है कहानियां हर पीढ़ी के लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में कार्य करती हैं इसलिए हमने कुछ बेहतरीन अध्यात्मिक प्रेरक प्रसंग कहानियां आपके साथ सांझा की है।

Contents

परमात्मा की खोज – प्रेरक विचार

मैं अपने परमात्मा को खोजने निकला। किसी से पुछा कि परमात्मा कहां मिलेगा तो उसने बताया कि इस मंदिर में चले जाओ दर्शन हो जाएंगे। मैं वहां गया लेकिन वहां देखा कि भक्त लोग मूर्ति की पूजा कर रहे थे। शरीर से पूजा हो रही थी लेकिन आपस में बात भी कर रहे थे।
मैं वहां से चला तीर्थों में गया वहां कुछ ओर ही नजर आया। वहां परमात्मा के दर्शन की कीमत तय कर रखी थी। 500 रूपये दो तो एक घंटे में दर्शन हो जाएंगे।
मैं वहां से भी आ गया, वृत उपवास भी किया लेकिन परमात्मा नहीं मिला। एक दिन अपनी धुन में जा रहा था कि एक महात्मा जी से भेंट हुई। उन्होंने पूछा कि क्या बात है कहा घुम रहे हों तो मैंने कहा कि मैं परमात्मा की खोज में निकला हूं लेकिन वह कहीं नहीं मिला।
    उस महात्मा ने कहा कि उसे ढूंढने की जरूरत नहीं है वो तो तेरे पास ही है। अपनी दृष्टि बाहर की ओर से हटा कर अपने अन्दर की ओर देख तुझे तेरा परमात्मा मिल जाएगा। 
    मोक़ो कहा ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में।
वो महात्मा ओर कोई नहीं वो गुरु थे जिन्होंने अपने ही घट में उस परमपिता परमात्मा के दर्शन कराए। हम अपनी पूरी जिंदगी उसको खोजने में निकाल देते हैं लेकिन वो नहीं मिलता। क्योंकि हमारी खोज में हमारा स्वार्थ होता है। हम परमात्मा से कुछ पाने जाते हैं, परमात्मा को पाने नहीं। 
    सच्चे मन से ध्यान लगा परमात्मा का दर्शन अपने अन्दर ही होगा।
हम सभी कस्तूरी मृग की तरह है। परमात्मा हमारे अंदर है और उसकी सुगंध बाहर ढूंढते है। 
चिंतन कर ले, मना । 

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बाँट कर खाने वाला कभी भूखा नही मरता –  प्रेरक कहानी

एक डलिया में संतरे बेचती बूढ़ी औरत से एक युवा अक्सर संतरे
खरीदता । अक्सर, खरीदे संतरों से एक संतरा निकाल उसकी एक फाँक
चखता और कहता – “ये कम मीठा लग रहा है, देखो !”
बूढ़ी औरत संतरे को चखती और प्रतिवाद करती – “ना बाबू मीठा तो है!”
वो उस संतरे को वही छोड़,बाकी संतरे ले गर्दन झटकते आगे बढ़
जाता।
युवा अक्सर अपनी पत्नी के साथ होता था, एक दिन पत्नी नें पूछा “ये संतरे हमेशा मीठे ही होते हैं, पर यह नौटंकी तुम हमेशा क्यों करते हो ?
युवा ने पत्नी को एक मधुर मुस्कान के साथ बताया – “वो बूढ़ी माँ संतरे बहुत मीठे बेचती है, पर खुद कभी नहीं खाती, इस तरह मै उसे संतरा खिला देता हूँ।
एक दिन, बूढ़ी माँ से, उसके पड़ोस में सब्जी बेचनें वाली औरत ने सवाल किया- ” ये झक्की लड़का संतरे लेते इतनी चख चख करता है, पर संतरे तौलते हुए मै तेरे पलड़े को देखती हूँ, तुम हमेशा उसकी चख चख में, उसे ज्यादा संतरे तौल देती हो।
बूढ़ी माँ अपने साथ सब्जी बेचने वाली से कहा – “उसकी चख चख संतरे के लिए नहीं, मुझे संतरा खिलानें को लेकर होती है, वो समझता है मैं उसकी बात समझती नही,लेकिन मै बस उसका प्रेम देखती हूँ, पलड़ो पर संतरे अपनें आप बढ़ जाते।
मेरी हैसीयत से ज्यादा मेरी थाली मे तूने परोसा है। तेरा धन्यवाद
तू लाख मुश्किलें भी दे दे मालिक, मुझे तुझपे भरोसा है. 
एक बात तो पक्की है कि, 
छीन कर खानेवालों का कभी पेट नहीं भरता और बाँट कर खाने वाला कभी भूखा नही मरता!!

मन का सुकून – आज की प्रेरक कहानी

शहर की बहुत बडी दुकान थी जिसके ब्रेड पकौड़े और समोसे बडे मशहूर थे …मैं पहले भी सुन चुका था मगर कल जब एक खास दोस्त ने कहा-भाई मोहन ..क्या स्वादिष्ट थे समोसे … और इतने बढिया मुलायम ब्रेड पकौड़े … वाह मजा ही आ गया ….. सो आज मैंने भी वहां जाकर उन लजीज समोसों और ब्रेड पकौडों का मजा लेने की सोची, आफिस से निकला तो 7 बज चुके थे सोचा आज उसी दुकान पर पहले कुछ खाया जाए फिर घर जाऊंगा मगर जैसे ही दुकान के बाहर गाडी खडी करके अंदर जाने को हुआ तो एक नन्हे से हाथों के स्पर्श ने मेरा ध्यान खींचा देखा तो एक छोटी सी बच्ची 5 से 6 साल के बीच की ने मुझे रोककर कहा-अंकल …
क्या आप भी यहां समोसा और पकौड़ा खाने आए हैं … मैंने कहा-हां…. मगर तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो क्या यहां अच्छे नहीं मिलते ….?
वो बडी मासूमियत से बोली-मिलते हैं ना बहुत अच्छे मिलते हैं पर आप मत जाओ उन्हें खाने…
मैं उसकी बातें सुनकर कुछ हैरान हुआ फिर मैंने उससे इसकी वजह पूछी तो वो बोली-अंकल … ये दुकान वाले भैया ना— मुझे और मेरे छोटे भाई को हर रात बचे हुए समोसा पकौड़ा दे देते हैं उससे हमारा पूरे दिन का खाली पेट भर जाता है आज भी बहुत कम पकौडे बचे हैं …. कल तो सब खत्म हो गए थे इसीलिए हमें मिले ही नहीं …मैं तो भूखे रह लेती हूं मगर मेरा छोटू … वो रोता है .. कहकर रो पडी ….
मैने उसे चुप कराया और कहा…. पर मैं तो जरूर समोसे और पकौड़े लूंगा… और अंदर जाने लगा… ये देखकर वो कुछ परेशान हो गई….!
कुछ देर में जब मैं बाहर आया तो दुकानदार भी मेरे साथ था मैने वहां से जो समोसे और पकौड़े लिए थे वो उन दोनों बहन भाई को पकडा दिए और कहा- अबसे तुम्हें रात का इंतजार करने की जरुरत नहीं मैंने आपके इस दुकान वाले भैया से बात कर ली है अबसे ये तुम्हें समय पर रोज तुम्हारे समोसे और पकोड़े दे दिया करेंगे। 
कहकर मैं भीगी आँखें लिए बाहर आ गया — दोस्तों मैंने वो ब्रेड पकौड़े और समोसे तो नहीं खाए मगर उनका स्वाद सचमुच मेरे मन में था कयोंकि मैंने दुकानदार से हर महीने कुछ रुपये देने का वादा किया था जिसके बदले वो बिना कुछ बताए उन दोनों बहन भाई को रोज उनके मनपसंद स्वादिष्ट समोसे और पकौड़े दे दिया करेगा….
दोस्तों…. मेरे पिताजी कहते हैं कुछ काम ऐसे होने चाहिए जिसे करने से आपको और आपके मन को सुकून मिले।

भारतीय जीवन दर्शन – छोटा प्रेरक प्रसंग

अपने इष्टदेव का निर्णय कैसे करें? भगवान ने क्यों धारण किए हैं विभिन्न रूप ?
परब्रह्म परमात्मा की इस सृष्टि प्रपंच में विभिन्न स्वभाव के प्राणियों का निवास है। इसलिए विभिन्न स्वभाव वाले प्राणियों की विभिन्न रुचियों के अनुसार भगवान भी विभिन्न रूप में प्रकट होते हैं।
किसी का चित्त भगवान के भोलेशंकर रूप में रमता है, तो किसी का शेषशायी विष्णु रूप पर मुग्ध होता है; किसी का मन श्रीकृष्ण के नटवर वेष में फंसता है, तो किसी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आकर्षित करते हैं । किसी को श्रीकृष्ण की आराधिका श्रीराधा की करुणामयी रसिकता अपनी ओर खींचती है तो किसी को जगदम्बा का दुर्गारूप सुहाता है । अत: भगवान के जिस रूप में प्रीति हो उसी रूप की आराधना करनी चाहिए ।
कैसे जाने परमात्मा का कौन-सा रूप है अपना इष्ट ?
सनातन हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देवता माने गए हैं जिनमें पांच प्रमुख देवता—सूर्य, गणेश, गौरी, शिव और श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण, श्रीराम) की उपासना प्रमुख रूप से बतायी गयी है । कोई किसी देवता को तो कोई किसी और देवता को बड़ा बतलाता है, ऐसी स्थिति में मन में यह व्याकुलता बनी रहती है कि किसको इष्ट माना जाए ?
हृदय में जब परमात्मा के किसी रूप की लगन लग जाए, दिल में वह छवि धंस जाए, किसी की रूप माधुरी आंखों में समा जाए, किसी के लिए अत्यन्त अनुराग हो जाए, मन में उन्हें पाने की तड़फड़ाहट हो जाए तो वही हमारे आराध्य हैं—ऐसा जानना चाहिए ।
श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद जब उद्धवजी गोपियों को समझाने व्रज में आते हैं तब गोपियाँ उद्धवजी से कहती हैं–’यहां तो श्याम के सिवा और कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में तो वह छाया है । तुम्हीं बताओ, क्या किया जाय ! वह तो हृदय में गड़ गया है और रोम-रोम में ऐसा अड़ गया है कि किसी भी तरह निकल ही नहीं पाता; भीतर भी वही और बाहर भी सर्वत्र वही है।’
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसे निकसैं वे ऊधौ, तिरछे आनि अड़े।।
आराध्य के प्रति कैसी निष्ठा होनी चाहिए। 
मनुष्य अनेक जन्म लेता है अत: जन्म-जन्मान्तर में जो उसके इष्ट रह चुके हैं, उनके प्रति उसके मन में विशेष प्रेम रहता है । पूर्व जन्मों की उपासना का ज्ञान स्वप्न में भगवान के दर्शन से या बार-बार चित्त के एक देव विशेष की ओर आकर्षित होने से प्राप्त हो जाता है । साधक के मन और प्राण जब परमात्मा के जिस रूप में मिल जाएं जैसे गोपियों के श्रीकृष्ण में मिल गए थे, तब उन्हें ही अपना इष्ट जानना चाहिए –

कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय ।
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।।

पूर्वजन्मों की साधना के अनुकूल ही हमें परिवार या कुल प्राप्त होता है । परिवार में माता-पिता या दादी-बाबा के द्वारा जिस देवता की उपासना की जाती रही है, उनके प्रति ही हम विशेष श्रद्धावान होते हैं । अत: माता-पिता, दादा-परदादा ने जिस व्रत का पालन किया हो या जिस देव की उपासना की हो, मनुष्य को उसी देवता और व्रत का अवलम्बन लेना चाहिए । साघक को अपने इष्ट को कभी कम या अपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उसे सदैव उन्हें सर्वेश्वर समझ कर उनकी उपासना करनी चाहिए ।
जब तुलसीदासजी की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण बने रघुनाथ –
अपने आराध्य को श्रेष्ठ मानना और ईश्वर के अन्य रूपों को छोटा समझना, उनकी निन्दा करना सही नही है । क्योंकि सभी रूप उस एक परब्रह्म परमात्मा के ही हैं । जब मन में अपने आराध्य के प्रति सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण होता है तो परमात्मा के हर रूप में अपने इष्ट के ही दर्शन होते हैं ।
एक बार तुलसीदासजी श्रीधाम वृन्दावन में संध्या के समय भक्तमाल के रचियता श्रीनाभाजी आदि वैष्णवों के साथ ‘ज्ञानगुदड़ी’ नामक स्थान पर मदनमोहनजी के दर्शन कर रहे थे । तब परशुराम नाम के पुजारी ने तुलसीदासजी पर कटाक्ष करते हुए कहा –

अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय ।
इष्टविहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय ।।

अर्थात् सभी को अपने इष्ट को नमन करना चाहिए । दूसरों के इष्ट को नमन करना तो निगुरा यानी बिना गुरु के होने के समान है ।
गोस्वामीजी के मन में श्रीराम और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण गोस्वामीजी ने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से प्रार्थना करते हुए कहा—‘हे प्रभु ! हे रामजी ! मैं जानता हूँ कि आप ही राम हो, आप ही कृष्ण हो । आज की आपकी मुरली लिए हुए छवि अत्यन्त मनमोहक है लेकिन आज आपके भक्त के मन में भेद आ गया है । आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी, यह मस्तक आपके सामने तभी नवेगा जब आप हाथ में धनुष बाण ले लोगे ।’

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ ।।

परमात्मा प्राप्ति किसे होती हॆ ? – एक सुन्दर , अच्छी व शिक्षाप्रद कहानी

एक राजा था।वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ और याद करता था। एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा—“राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इछा हॆ?”
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला—“भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ हॆ।आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति हॆ। फिर भी मेरी एक ईच्छा हॆ कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।”
“यह तो सम्भव नहीं है ।” भगवान ने राजा को समझाया ।परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा। आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले,–“ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। मैं पहाडी के ऊपर से दर्शन दूँगा।”
राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड के नीचे मेरे साथ पहुँचे,वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देगें। दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक उस ओर भागने लगे।तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे,क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो,इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत कुछ एक प्रजा तांबे कि सिक्कों वाली पहाडी की ओर भाग गयी और सिक्कों कि गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे,पहले ये सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी मिल लेगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड दिखाई दिया।इस वार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चलने लगे।उनके मन मे विचार चल रहा था कि,ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है । चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल जायेगें ! इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड नजर आया।अब तो प्रजाजनो में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों कि गठरी लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये। अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे।राजा रानी से कहने लगे -“देखो कितने लोभी ये लोग। भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हॆ। भगवान के सामने सारी दुनियां कि दौलत क्या चीज हॆ ?” सही बात है – रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे बढने लगे। 
कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता हीरों का पहाड हॆ।अब तो रानी से रहा नहीं गया,हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पडी,और हीरों कि गठरी बनाने लगी ।फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी । वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये,परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी।यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि ओर विरक्ति हुई।बड़े दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये।
वहाँ सचमुच भगवान खडे उसका इन्तजार कर रहे थे।राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा -“कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूॅ।”
राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया।तब भगवान ने राजा को समझाया – “राजन जो लोग भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हॆ, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर वह मेरे स्नेह तथा आर्शिवाद से भी वंचित रह जाते हॆ।”
बोध कथा से सार – 
जो आत्मायें अपनी मन ओर बुद्धि से भगवान पर कुर्बान जाते हैं,
और सर्वसम्बधों से प्यार करते है, वह भगवान के प्रिय बनते हैं।

भगवान्  तेरा  शुक्रिया – ज़िन्दगी की टेंशन खत्म करने वाली कहानी

एक व्यक्ति काफी दिनों से चिंतित चल रहा था जिसके कारण वह काफी चिड़चिड़ा तथा तनाव में रहने लगा था। वह इस बात से परेशान था कि घर के सारे खर्चे उसे ही उठाने पड़ते हैं, पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है, किसी ना किसी रिश्तेदार का उसके यहाँ आना जाना लगा ही रहता है, इन्ही बातों को सोच सोच कर वह काफी परेशान रहता था तथा बच्चों को अक्सर डांट देता था तथा अपनी पत्नी से भी ज्यादातर उसका किसी न किसी बात पर झगड़ा चलता रहता था ।
एक दिन उसका बेटा उसके पास आया और बोला पिताजी मेरा स्कूल का होमवर्क करा दीजिये, वह व्यक्ति पहले से ही तनाव में था तो उसने बेटे को डांट कर भगा दिया लेकिन जब थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा शांत हुआ तो वह बेटे के पास गया तो देखा कि बेटा सोया हुआ है और उसके हाथ में उसके होमवर्क की कॉपी है। उसने कॉपी लेकर देखी और जैसे ही उसने कॉपी नीचे रखनी चाही, उसकी नजर होमवर्क के टाइटल पर पड़ी ।
होमवर्क का टाइटल था-
👉वे चीजें जो हमें शुरू में अच्छी नहीं लगतीं लेकिन बाद में वे अच्छी ही होती हैं👈
इस टाइटल पर बच्चे को एक पैराग्राफ लिखना था जो उसने लिख लिया था। उत्सुकतावश उसने बच्चे का लिखा पढना शुरू किया बच्चे ने लिखा था।
●मैं अपने फाइनल एग्जाम को बहुंत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये बिलकुल अच्छे नहीं लगते लेकिन इनके बाद स्कूल की छुट्टियाँ पड़ जाती है।
●मैं ख़राब स्वाद वाली कड़वी दवाइयों को बहुत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये कड़वी लगती हैं लेकिन ये मुझे बीमारी से ठीक करती हैं।
●मैं सुबह – सुबह जगाने वाली उस अलार्म घड़ी को बहुत धन्यवाद् देता हूँ जो मुझे हर सुबह बताती है कि मैं जीवित हूँ।
●मैं ईश्वर को भी बहुत धन्यवाद देता हूँ जिसने मुझे इतने अच्छे पिता दिए क्योंकि उनकी डांट मुझे शुरू में तो बहुत बुरी लगती है लेकिन वो मेरे लिए खिलौने लाते हैं, मुझे घुमाने ले जाते हैं और मुझे अच्छी अच्छी चीजें खिलाते हैं और मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे पास पिता हैं क्योंकि मेरे दोस्त सोहन के तो पिता ही नहीं हैं।
बच्चे का होमवर्क पढने के बाद वह व्यक्ति जैसे अचानक नींद से जाग गया हो। उसकी सोच बदल सी गयी। बच्चे की लिखी बातें उसके दिमाग में बार बार घूम रही थी। खासकर वह last वाली लाइन। उसकी नींद उड़ गयी थी। फिर वह व्यक्ति थोडा शांत होकर बैठा और उसने अपनी परेशानियों के बारे में सोचना शुरू किया।
●मुझे घर के सारे खर्चे उठाने पड़ते हैं, इसका मतलब है कि मेरे पास घर है और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से बेहतर स्थिति में हूँ जिनके पास घर नहीं है।
●मुझे पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है, इसका मतलब है कि मेरा परिवार है, बीवी बच्चे हैं और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से ज्यादा खुशनसीब हूँ जिनके पास परिवार नहीं हैं और वो दुनियाँ में बिल्कुल अकेले हैं।
●मेरे यहाँ कोई ना कोई मित्र या रिश्तेदार आता जाता रहता है, इसका मतलब है कि मेरी एक सामाजिक हैसियत है और मेरे पास मेरे सुख दुःख में साथ देने वाले लोग हैं।
हे ! मेरे भगवान् ! तेरा बहुंत बहुंत शुक्रिया, मुझे माफ़ करना, मैं तेरी कृपा को पहचान नहीं पाया।
इसके बाद उसकी सोच एकदम से बदल गयी, उसकी सारी परेशानी, सारी चिंता एक दम से जैसे ख़त्म हो गयी। वह एकदम से बदल सा गया। वह भागकर अपने बेटे के पास गया और सोते हुए बेटे को गोद में उठाकर उसके माथे को चूमने लगा और अपने बेटे को तथा ईश्वर को धन्यवाद देने लगा।
हमारे सामने जो भी परेशानियाँ हैं, हम जब तक उनको नकारात्मक नज़रिये से देखते रहेंगे तब तक हम परेशानियों से घिरे रहेंगे लेकिन जैसे ही हम उन्हीं चीजों को, उन्ही परिस्तिथियों को सकारात्मक नज़रिये से देखेंगे, हमारी सोच एकदम से बदल जाएगी, हमारी सारी चिंताएं, सारी परेशानियाँ, सारे तनाव एक दम से ख़त्म हो जायेंगे और हमें मुश्किलों से निकलने के नए – नए रास्ते दिखाई देने लगेंगे।

कुआं – प्रेरक कहानी

एक बार राजा भोज के दरबार में एक सवाल उठा कि ऐसा कौन सा कुआं है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं निकल पाता? इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाया। आखिर में राजा भोज ने राज पंडित से कहा कि इस प्रश्न का उत्तर सात दिनों के अंदर लेकर आओ, वरना आपको अभी तक जो इनाम धन आदि दिया गया है,वापस ले लिए जायेंगे तथा इस नगरी को छोड़कर दूसरी जगह जाना होगा।
छः दिन बीत चुके थे।राज पंडित को जबाव नहीं मिला था।निराश होकर वह जंगल की तरफ गया। वहां उसकी भेंट एक गड़रिए से हुई। गड़रिए ने पूछा – आप तो राजपंडित हैं, राजा के दुलारे हो फिर चेहरे पर इतनी उदासी क्यों?
यह गड़रिया मेरा क्या मार्गदर्शन करेगा?सोचकर पंडित ने कुछ नहीं कहा।इसपर गडरिए ने पुनः उदासी का कारण पूछते हुए कहा – पंडित जी हम भी सत्संगी हैं,हो सकता है आपके प्रश्न का जवाब मेरे पास हो, अतः नि:संकोच कहिए। राज पंडित ने प्रश्न बता दिया और कहा कि अगर कलतक प्रश्न का जवाब नहीं मिला तो राजा नगर से निकाल देगा।
गड़रिया बोला – मेरे पास पारस है उससे खूब सोना बनाओ। एक भोज क्या लाखों भोज तेरे पीछे घूमेंगे।बस,पारस देने से पहले मेरी एक शर्त माननी होगी कि तुझे मेरा चेला बनना पड़ेगा।
राज पंडित के अंदर पहले तो अहंकार जागा कि दो कौड़ी के गड़रिए का चेला बनूं? लेकिन स्वार्थ पूर्ति हेतु चेला बनने के लिए तैयार हो गया।
गड़रिया बोला – पहले भेड़ का दूध पीओ फिर चेले बनो। राजपंडित ने कहा कि यदि ब्राह्मण भेड़ का दूध पीयेगा तो उसकी बुद्धि मारी जायेगी। मैं दूध नहीं पीऊंगा। तो जाओ, मैं पारस नहीं दूंगा – गड़रिया बोला।
राज पंडित बोला – ठीक है,दूध पीने को तैयार हूं,आगे क्या करना है?
गड़रिया बोला- अब तो पहले मैं दूध को झूठा करूंगा फिर तुम्हें पीना पड़ेगा।
राजपंडित ने कहा – तू तो हद करता है! ब्राह्मण को झूठा पिलायेगा? तो जाओ, गड़रिया बोला।
राज पंडित बोला – मैं तैयार हूं झूठा दूध पीने को ।
गड़रिया बोला- वह बात गयी।अब तो सामने जो मरे हुए इंसान की खोपड़ी का कंकाल पड़ा है, उसमें मैं दूध दोहूंगा,उसको झूठा करूंगा, कुत्ते को चटवाऊंगा फिर तुम्हें पिलाऊंगा।तब मिलेगा पारस। नहीं तो अपना रास्ता लीजिए।
राजपंडित ने खूब विचार कर कहा- है तो बड़ा कठिन लेकिन मैं तैयार हूं।
गड़रिया बोला- मिल गया जवाब। यही तो कुआं है लोभ का, तृष्णा का जिसमें आदमी गिरता जाता है और फिर कभी नहीं निकलता। जैसे कि तुम पारस को पाने के लिए इस लोभ रूपी कुएं में गिरते चले गए।

300 वर्ष का योगी ! प्रेरक संस्मरण

वाराणसी की गलियों में एक दिगम्बर योगी घूमता रहता है. गृहस्थ लोग उसके नग्न वेश पर आपत्ति करते हैं. फिर भी पुलिस उसे पकड़ती नहीं. वाराणसी पुलिस की इस तरह की तीव्र आलोचनाएं हो रही थीं. आखिर वारंट निकालकर उस नंगे घूमने वाले साधू को जेल में बंद करने का आदेश दिया गया।_
पुलिस के आठ- दस जवानों ने पता लगाया. मालूम हुआ वह योगी इस समय मणिकर्णिका घाट पर बैठा हुआ है। जेष्ठ की चिलचिलाती दोपहरी. घर से बाहर निकलना भी कठिन होता है. इस समय एक योगी को मणिकर्णिका घाट के एक जलते तवे की भाँति गर्म पत्थर पर बैठे देख पुलिस पहले तो सकपकायी. पर आखिर पकड़ना तो था ही वे आगे बढ़े।
योगी पुलिस वालों को देखकर ऐसे मुस्करा रहा था मानों वह उनकी सारी चाल समझ रहा हो। योगीजी कुछ इस प्रकार निश्चिन्त बैठे हुये थे मानों वह वाराणसी के ब्रह्मा हों किसी से भी उन्हें भय न हो।
मामूली कानूनी अधिकार पाकर पुलिस का दरोगा जब किसी से नहीं डरता तो अनेक सिद्धियों सामर्थ्यों का स्वामी योगी भला किसी से भय क्यों खाने लगा।
पुलिस मुश्किल से दो गज पर थी कि तैलंग स्वामी उठ खड़े हुए. वे वहाँ से गंगा जी की तरफ भागे। पुलिस वालों ने पीछा किया।
स्वामी जी गंगा में कूद गये पुलिस के जवान बेचारे वर्दी भीगने के डर से कूदे तो नहीं, हाँ चारों तरफ से घेरा डाल दिया, कभी तो निकलेगा साधु का बच्चा। 
लेकिन एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा- सूर्य भगवान् सिर के ऊपर थे अब अस्ताचलगामी हो चले. स्वामी जी प्रकट न हुए। 
उन्होंने एक बहुत बड़ी शिला पानी के अंदर फेंक रखी थी. पानी में डुबकी लगा जाने के बाद उसी शिला पर घंटों समाधि लगायें जल के भीतर ही बैठे रहते हैं।
उनको किसी ने कुछ खाते पीते नहीं देखा. मेडिकल रिपोर्ट में उनकी आयु 300 वर्ष की बताई गई है। निराहार रहने पर भी प्रतिवर्ष उनका वजन एक पौण्ड बढ़ जाता था।
300 पौंड वजन था उनका जिस समय पुलिस उन्हें पकड़ने गई. इतना स्थूल शरीर होने पर भी पुलिस उन्हें पकड़ न सकी।
आखिर जब रात हो चली तो सिपाहियों ने सोचा डूब गया. वे दूसरा प्रबन्ध करने के लिए थाने लौट गये. इस बीच अन्य लोग बराबर तमाशा देखते रहे. पर तैलंग स्वामी पानी के बाहर नहीं निकले।
प्रातः काल पुलिस फिर वहाँ पहुँची। स्वामी जी इस तरह मुस्करा रहे थे मानों उनके जीवन में सिवाय मुस्कान और आनंद के और कुछ हो ही नहीं। ऊर्जा तो आखिर ऊर्जा ही है. संसार में उसी का ही तो आनंद है। योग द्वारा सम्पादित शक्तियों का स्वामी जी रसास्वादन कर रहे हैं तो आश्चर्य क्या।
इस बार भी जैसे ही पुलिस पास पहुँची स्वामी फिर गंगा जी की ओर भागे. वो उस पार जा रही नाव के मल्ला को पुकारते हुए पानी में कूद पड़े।
लोगों को आशा थी कि स्वामी जी कल की तरह आज भी पानी के अंदर छुपेंगे. जिस प्रकार मेढ़क मिट्टी के अंदर और रीछ बर्फ के नीचे दबे बिना श्वाँस के पड़े रहते हैं उसी प्रकार स्वामी जी भी पानी के अंदर समाधि ले लेंगे. किन्तु यह क्या?
जिस प्रकार से वायुयान दोनों पंखों की मदद से इतने सारे भार को हवा में संतुलित कर तैरता चला जाता है उसी प्रकार तैलंग स्वामी पानी में इस प्रकार दौड़ते हुए भागे मानों वह जमीन पर दौड़ रहे हों।
नाव उस पार नहीं पहुँच पाई. स्वामी जी पहुँच गये। पुलिस खड़ी देखती रह गई।
स्वामी जी ने सोचा कि पुलिस बहुत परेशान हो गई. तो वह एक दिन पुनः मणिकर्णिका घाट पर प्रकट हुए. अपने आपको पुलिस के हवाले कर दिया।
तैलंग स्वामी भी सामाजिक नियमोपनियमों की अवहेलना नहीं करना चाहते थे. यह प्रदर्शित करना आवश्यक भी था कि योग और अध्यात्म की शक्ति भौतिक शक्तियों से बहुत आगे चढ़-बढ़ कर है. तभी वे दो बार पुलिस को छकाने के बाद इस प्रकार चुपचाप ऐसे बैठे रहे मानों उनको कुछ पता ही न हो।
हथकड़ी डालकर पुलिस तैलंग स्वामी को पकड़ ले गई. हवालात में बंद कर दिया। इन्सपेक्टर पूरी रात गहरी नींद सोया. उसे स्वामी जी की गिरफ्तारी सफलता लग रही थी।
यह घटना “मिस्ट्रीज आँ इंडिया इट्स योगीज” नामक लुई-द-कार्टा लिखित पुस्तक भी दर्ज है। स्वामी योगानंद ने भी इस घटना का वर्णन अपनी पुस्तक “आटो बाई ग्राफी आँ योगी” के 31वें परिच्छेद में किया है।
प्रातः काल ठंडी हवा बह रही थी. थानेदार जी हवालात की तरफ आगे बढ़े. वे तब पसीने में डूब गए – जब उन्होंने योगी तैलंग को हवालात की छत पर मजे से टहलते और वायु सेवन करते देखा। हवालात के दरवाजे बंद थे, ताला भी लग रखा था।
फिर यह योगी छत पर कैसे पहुँच गया ? अवश्य ही संतरी की बदमाशी होगी। उन बेचारे संतरियों ने बहुतेरा कहा कि हवालात का दरवाजा एक क्षण को खुला नहीं फिर पता नहीं साधु महोदय छत पर कैसे पहुँच गये। वे इसे योग की महिमा मान रहे थे पर इन्सपेक्टर उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं था। 
आखिर योगी को फिर हवालात में बंद किया गया। रात दरवाजे में लगे ताले को सील किया गया. चारों तरफ गहरा पहरा लगा. ताला लगाकर थानेदार थाने में ही सोया।
सवेरे बड़ी जल्दी कैदी की हालत देखने उठे तो फिर शरीर में काटो तो खून नहीं। सील बंद ताला बाकायदा बंद। सन्तरी पहरा भी दे रहे उस पर भी तैलंग स्वामी छत पर बैठे प्राणायाम का अभ्यास कर रहे।
थानेदार की आँखें खुली की खुली रह गईं उसने तैलंग स्वामी को आखिर छोड़ ही दिया।
एक नास्तिक सिरफिरे ने चूने के पानी को ले जाकर स्वामी जी के सम्मुख रख दिया और कहा महात्मन् ! आपके लिए बढ़िया दूध लाया हूँ। 
स्वामी जी उठाकर पी गये उस चूने के पानी को अभी कुछ ही क्षण हुये थे कि वो आदमी कराहने और चिल्लाने लगा, जिसने चूने का पानी पिलाया था। स्वामी जी के पैरों में गिरा, क्षमा याचना की तब कहीं जाकर पेट की जलन समाप्त हुई।
योगीजी ने कहा भाई मेरा कसूर नहीं है. यह तो न्यूटन का नियम है कि हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया अवश्य होती है। मनुष्य शरीर एक यंत्र है. प्राणशक्ति उसकी ऊर्जा है. प्रेम और ध्यान ईंधन है. मन इंजन है. कुशल ड्राइवर द्वारा इसे चाहे जिस प्रकार चलाया जा सकता हैं. इस शरीर में भौतिक विज्ञान से भी अद्भुत शक्तियाँ हैं. पर यह सब शक्तियाँ और सामर्थ्य ध्यान साधना में सन्निहित हैं. इन्हें अधिकारी पात्र ही पाते हैं. वे ही परम आनन्द का लाभ प्राप्त करते हैं।

अंतिम महल – प्रेरक कहानी

एक राजा बहुत ही महत्त्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्त्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया! रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नही क्या करेंगे इतने महल बनवाकर। एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के वहाँ से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधी थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन मे गढ़वा दिया और कहा की जिसे भी वो खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधी से चोरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी।
राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई।
उस पर लिखा था – हॆ राहगीर !! संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम चाहें कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी मिट्टी मे मिलना है। सावधान राहगीर !! जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसै ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों मे तुम्हे अकेले ही भटकना है और हॆ राहगीर !! ये कभी न भूलना की मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।
फिर राजा जैसै तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख दिया।सारे महल जनता को दे दिये और अंतिम घर की तैयारियों मे जुट गया। 
प्रेरक बोध कथा से सार –
हमें एक बात हमेशा याद रखना की इस मिट्टी ने जब रावण जैसै सत्ताधारियों को नही बख्सा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है इसलिये यह हमेशा याद रखना की मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नही छोड़ने वाली है।

पितृ भक्त आज्ञाकारी पुत्र – आज की प्रेरक कहानी

चौबे जी नाम के एक सच्चे एवं स्पष्ट वादी सज्जन पुलिस में कार्यरत थे । वे हमारी दुकान से कपड़ा उधार ले जाया करते थे तथा समय पर रुपए वापस कर देते थे ।अंतिम बार जब कपड़ा उधार खरीदा तब उन्हें यह नहीं मालूम था कि उनका अंतिम समय आ गया है। वे कपड़ा खरीद कर अपने गांव🏘️ चले गए, वहां जाकर बीमार पड़ गए और उन्हें भरोसा हो गया कि अब बचना मुश्किल है ।उनके इकलौते पुत्र को मालूम पड़ा तो वह सेवा- शुश्रूषा के लिए ग्वालियर से अपने गांव चला आया। चौबे जी ने अपने बेटे से कहा- रामदेव…. ! भूल मत जाना,…. मैं ग्वालियर से भूरा सेठ की दुकान से कपड़ा उधार लाया था। मेरे मरणोपरांत तुम उनके रुपए जरूर दे आना। भगवान की मर्जी कुछ दिन बाद उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। रामदेव को ग्वालियर में सर्विस पर ड्यूटी ज्वाइन करनी थी अतः वे वापस आ गए।
इधर देहावसान के कुछ दिन बाद हमें मालूम पड़ा कि चौबे जी का स्वर्गवास हो गया । हमारे मन में विचार आया कि चौबे जी तो बड़े सच्चे, ईमानदार तथा स्पष्टभाषी एवं हमारे अत्यंत प्रेमी थे,उनके खाते में हमारे रुपए लेना निकल रहे हैं ,भगवान की बही में भी जरूर बाकी निकल रही होगी। चौबे जी को कहीं उसकी सजा न मिल जाए इसलिए हमने अपनी अपनी जेब से रुपए निकालकर दुकान के गल्ले में रख दिए और खाते में जमा कर दिए।
पांच-सात दिन बाद उनके सुपुत्र आए और बोले पिताजी की तरफ कितने रुपए देना बाकी है? हमने कहा कुछ नहीं लेना है वे बोले पिताजी ने मृत्यु से पहले मुझे कहा है कि तुम रुपए जरूर देकर आना। हम दोनों में रुपए लेने तथा न देने के विषय में बहस होती रही। आखिर वे बोले कि आप अपना खाता निकालें। हमने खाता निकाल कर उन्हें दिखा दिया ।उन्होंने जमा की तारीख पकड़ ली और हंस कर कहा कि हमारे पिताजी तो इस तारीख के 10 दिन पूर्व स्वर्ग लोग पधार चुके थे, रुपए कौन जमा कर गया ,क्या वे स्वर्ग से आकर जमा कर गए? हम ने उत्तर दिया कि हमारे यहां खाते में जमा है इसलिए हम रुपए नहीं लेंगे। वे फिर हंसकर बोले कि आप झूठे और आपका खाता झूठा ।हमने सोचा कि ये तो सच्चे और स्पष्ट भाषी पिता के पुत्र हैं। आखिर हमने मान लिया और सच्ची बात बता दी और निवेदन किया कि भाई चौबे जी आपके पिता और हमारे मित्र थे। हम उन्हें बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे इसलिए कृपा करो। वे नहीं माने और हठ पूर्वक हमें पूरे रुपए दे गए।
आज के महान घोर कलयुग में ऐसी भी नजीर देखने को मिल जाती है ।धन्य है स्वर्गवासी पिता को एवं पितृ भक्त आज्ञाकारी पुत्र को।🌹
कहानी से सीख – 

अच्छी या बुरी नीति से जो भी हम कमाते हैं उसका असर हमारी संतान पर पड़ता है और वह वैसे ही रास्ते पर चल पड़ती है इसलिए हमें हमेशा सच्चाई और ईमानदारी का रास्ता चुनना चाहिए जिसका असर हमारी आने वाली पीढ़ियों पर पड़े और हम दुनिया के लिए मिसाल बन जाएं।

ज़िन्दगी की शाम ढलने को है – आज की प्रेरक कहानी

किसी बात पर पत्नी से चिकचिक हो गई, वह बड़बड़ाते घर से बाहर निकला , सोचा कभी इस लड़ाकू औरत से बात नहीं करूँगा, पता नहीं समझती क्या है खुद को? जब देखो झगड़ा, सुकून से रहने नहीं देती, नजदीक के चाय के स्टॉल पर पहुँच कर चाय ऑर्डर की और सामने रखे स्टूल पर बैठ गया।
आवाज सुनाई दी – इतनी सर्दी में बाहर चाय पी रहे हो?
उसने गर्दन घुमा कर देखा तो साथ के स्टूल पर बैठे बुजुर्ग उससे मुख़ातिब थे। 
आप भी तो इतनी सर्दी और इस उम्र में बाहर हैं ,
बुजुर्ग ने मुस्कुरा कर कहा मैं निपट अकेला, न कोई गृहस्थी, न साथी, तुम तो शादीशुदा लगते हो. पत्नी घर में जीने नहीं देती, हर समय चिकचिक,बाहर न भटकूँ तो क्या करूँ।
गर्म चाय के घूँट अंदर जाते ही दिल की कड़वाहट निकल पड़ी. बुजुर्ग-: पत्नी जीने नहीं देती !
बरखुरदार ज़िन्दगी ही पत्नी से होती है. 8 बरस हो गए हमारी पत्नी को गए हुए, जब ज़िंदा थी, कभी कद्र नहीं की, आज कम्बख़्त चली गयी तो भूलाई नहीं जाती, घर काटने को होता है, बच्चे अपने अपने काम में मस्त, आलीशान घर, धन दौलत सब है पर उसके बिना कुछ मज़ा नहीं, यूँ ही कभी कहीं, कभी कहीं भटकता रहता हूँ. कुछ अच्छा नहीं लगता, उसके जाने के बाद, पता चला वो धड़कन थी मेरे जीवन की ही नहीं मेरे घर की भी. सब बेजान हो गया है,
बुज़ुर्ग की आँखों में दर्द और आंसुओं का समंदर था. उसने चाय वाले को पैसे दिए, नज़र भर बुज़ुर्ग को देखा, एक मिनट गंवाए बिना घर की ओर मुड़ गया।
दूर से देख लिया था, डबडबाई आँखो से निहार रही पत्नी चिंतित दरवाजे पर ही खड़ी थी।
कहाँ चले गए थे, जैकेट भी नहीं पहना, ठण्ड लग जाएगी तो ?
तुम भी तो बिना स्वेटर के दरवाजे पर खड़ी हो,
कुछ यूँ…दोनों ने आँखों से एक दूसरे के प्यार को पढ़ लिया।
बस यूं ही
कोशिश करके अपने उन दोस्तो को भी साथ रखियेगा जो बचपन से आपके साथ है और उन्हें भी जो बचपन से तो साथ नही पर कुछ समय दिल के बहुत करीब थे (और दूर हुए कुछ छोटी छोटी बातों से)। तो आज एक पहल करो, अपना फ़ोन उठाओ ओर किसी रूठे दोस्त को मनाओ
ओर अपनी जिंदगी में खुशबु को फैलने दो।

सेवा – आज की प्रेरक कहानी

नगर की प्रसिद्ध वैश्या की गली से एक योगी जा रहा था कंधे पर झोली डाले। योगी को देखते ही एक द्वार खुला सामने की महिला ने योगी को देखा। ध्यान की गरिमा से आपूर, अंतर मौन की रश्मियों से भरपूर। योगी को देखकर महिला ने निवेदन किया गृह में पधारने के लिए। उसके आमन्त्रण में वासना का स्वर था।
योगी ने उत्तर दिया,” देखती नहीं झोली में दवाएं पड़ी हैं, गरीबों में बांटनी हैं उन्हें रोगों से मुक्त करना है। हमारे और तुम्हारे कार्य में अंतर है तुम रोग बढ़ाती हो, हम रोग मिटाते हैं। तुम शरीर और वासना की भाषा बोलती हो, हम सत्य और बोध की।”
योगी की बात पर क्रोधित होकर वैश्या बोली,” योगी तुम्हें पता है। मेरे रंग रूप के पीछे सारा शहर दिवाना है। मुझे पाने के लिए वह अपने जीवन की भरपूर धन संपदा लुटाने को तत्पर रहते हैं। मैं स्वयं को तुम्हारे आगे समर्पित कर रही हूं और तुम इंकार कर रहे हो।”
योगी ने कहा,” मुझे तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार है परंतु अभी नहीं। मैं आऊंगा और जरूर आऊंगा।”
कहते हुए योगी चला गया। समय बीतता गया, महिला वृद्ध हो गई। अब उसे पाने के लिए कोई न आता था। तबले की थाप, घुंघरू की आवाज सुनाई नहीं देती थी बल्कि कराहने की आवाज आती थी।
योगी उस गली से गुजर रहा था आवाज सुनी पीड़ा से करहाने की। अंदर प्रवेश करके देखा एक वृद्धा जिसे कोढ़ हो गया था। दर्द से तड़प रही थी।
योगी ने कहा,” मैं आ गया हूं। कहा था न मैं आऊंगा।”
योगी ने झोली खोली,” उसके घाव साफ किए दवा लगाई और कहा चिन्ता न करो जल्दी ठीक हो जाओगी।”
सन्यास लेने से पूर्व योगी डॉक्टर था। सन्यास लेकर भी उसने सेवा का कार्य न छोड़ा था। सन्यास का अर्थ कर्म त्याग नहीं, कर्ता भाव का त्याग है। योगी नियमित रूप से महिला की सेवा करने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गई। जो कभी सुख के पीछे भागती थी आज योगी की कृपा से आनंद में जाग रही है।
इस शरीर की दो संभावनाएं हैं। यदि सुख लोलुपता में बह गया तो सुख के बाद दुख का नरक झेलना पड़ेगा और यदि सेवा का सूत्र मिल गया तो जीवन स्वर्ग की सुंगध से आपूर हो जाएगा।
आप का चुनाव है, आप बीच में खड़े हैं। दोनों द्वार खुले हैं, नर्क का भी, स्वर्ग का भी। सुख लोलुपता का, सेवा का भी। आप जिसमें जाना पसंद करें, चले जाएं। यह ध्यान रहे नर्क के द्वार पर सजावट बहुत है लेकिन परिणाम में पीड़ा और पश्चाताप है। स्वर्ग के द्वार पर कोई श्रृंगार नहीं है मात्र सत्य की सुंगध है। परिणाम में आनंद है।
नाशवान शरीर को अविनाशी का द्वार बना लो। बाहर आओ तो प्रत्येक क्रिया के द्वारा सेवा के फूल खिलाओ। अंदर जाओ तो अक्रिय के द्वारा आनंद की गंगा में नहाओ।
कहानी से सीख – 

अपना सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है।

सातवां घड़ा – प्रेरक प्रसंग कहानी

गाँव में एक नाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। नाई ईमानदार था, अपनी कमाई से संतुष्ट था। उसे किसी तरह का लालच नहीं था। नाई की पत्नी भी अपनी पति की कमाई हुई आय से बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी चलाती थी। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी बड़े आराम से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।
नाई अपने काम में बहुत निपुण था। एक दिन वहाँ के राजा ने नाई को अपने पास बुलवाया और रोज उसे महल में आकर हजामत बनाने को कहा।
नाई ने भी बड़ी प्रसन्नता से राजा का प्रस्ताव मान लिया। नाई को रोज राजा की हजामत बनाने के लिए एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी। इतना सारा पैसा पाकर नाई की पत्नी भी बड़ी खुश हुई। अब उसकी जिन्दगी बड़े आराम से कटने लगी। घर पर किसी चीज की कमी नहीं रही और हर महीने अच्छी रकम की बचत भी होने लगी। नाई, उसकी पत्नी और बच्चे सभी खुश रहने लगे।
एक दिन शाम को जब नाई अपना काम निपटा कर महल से अपने घर वापस जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक आवाज सुनाई दी।
आवाज एक यक्ष की थी। यक्ष ने नाई से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी ईमानदारी के बड़े चर्चे सुने हैं, मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत खुश हूँ और तुम्हें सोने की मुद्राओं से भरे सात घड़े देना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे दिये हुए घड़े लोगे ?
नाई पहले तो थोड़ा डरा, पर दूसरे ही पल उसके मन में लालच आ गया और उसने यक्ष के दिये हुए घड़े लेने का निश्चय कर लिया। नाई का उत्तर सुनकर उस आवाज ने फिर नाई से कहा, ‘‘ठीक है सातों घड़े तुम्हारे घर पहुँच जाएँगे।’’
नाई जब उस दिन घर पहुँचा, वाकई उसके कमरे में सात घड़े रखे हुए थे। नाई ने तुरन्त अपनी पत्नी को सारी बातें बताईं और दोनों ने घड़े खोलकर देखना शुरू किया। उसने देखा कि छः घड़े तो पूरे भरे हुए थे, पर सातवाँ घड़ा आधा खाली था। नाई ने पत्नी से कहा—‘‘कोई बात नहीं, हर महीने जो हमारी बचत होती है, वह हम इस घड़े में डाल दिया करेंगे। जल्दी ही यह घड़ा भी भर जायेगा। और इन सातों घड़ों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जायेगा।
अगले ही दिन से नाई ने अपनी दिन भर की बचत को उस सातवें में डालना शुरू कर दिया। पर सातवें घड़े की भूख इतनी ज्यादा थी कि वह कभी भी भरने का नाम ही नहीं लेता था।
धीरे-धीरे नाई कंजूस होता गया और घड़े में ज्यादा पैसे डालने लगा, क्योंकि उसे जल्दी से अपना सातवाँ घड़ा भरना था। नाई की कंजूसी के कारण अब घर में कमी आनी शुरू हो गयी, क्योंकि नाई अब पत्नी को कम पैसे देता था। पत्नी ने नाई को समझाने की कोशिश की, पर नाई को बस एक ही धुन सवार थी—सातवां घड़ा भरने की।
अब नाई के घर में पहले जैसा वातावरण नहीं था। उसकी पत्नी कंजूसी से तंग आकर बात-बात पर अपने पति से लड़ने लगी। घर के झगड़ों से नाई परेशान और चिड़चिड़ा हो गया।
एक दिन राजा ने नाई से उसकी परेशानी का कारण पूछा। नाई ने भी राजा से कह दिया अब मँहगाई के कारण उसका खर्च बढ़ गया है। नाई की बात सुनकर राजा ने उसका मेहताना बढ़ा दिया, पर राजा ने देखा कि पैसे बढ़ने से भी नाई को खुशी नहीं हुई, वह अब भी परेशान और चिड़चिड़ा ही रहता था।
एक दिन राजा ने नाई से पूछ ही लिया कि कहीं उसे यक्ष ने सात घड़े तो नहीं दे दिये हैं ? नाई ने राजा को सातवें घड़े के बारे में सच-सच बता दिया।
तब राजा ने नाई से कहा कि सातों घड़े यक्ष को वापस कर दो, क्योंकि सातवां घड़ा साक्षात लोभ है, उसकी भूख कभी नहीं मिटती।
नाई को सारी बात समझ में आ गयी। नाई ने उसी दिन घर लौटकर सातों घड़े यक्ष को वापस कर दिये।
घड़ों के वापस जाने के बाद नाई का जीवन फिर से खुशियों से भर गया था।
कहानी हमें बताती है कि हमें कभी लोभ नहीं करना चाहिए। भगवान ने हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार चीजें दी हैं, हमारे पास जो है, हमें उसी से खुश रहना चाहिए। अगर हम लालच करे तो सातवें घड़े की तरह उसका कोई अंत नहीं होता..।
इस कहानी का अंत, हो सकता है आपको digest नही होगा। परन्तु हमारे जीवन की शांति बिगड़ने के कारणों में से सबसे बड़ा कारण है लोभ (शांति से बैठ कर सोचियेगा, अन्यथा इसे एक कहानी समझ कर जाने दे)

कर्म की गति

एक कारोबारी सेठ सुबह सुबह जल्दबाजी में घर से बाहर निकल कर ऑफिस जाने के लिए कार का दरवाजा खोल कर जैसे ही बैठने जाता है, उसका पाँव गाड़ी के नीचे बैठे कुत्ते की पूँछ पर पड़ जाता है…. दर्द से बिलबिलाकर अचानक हुए इस वार को घात समझ वह कुत्ता उसे जोर से काट खाता है।
गुस्से में आकर सेठ आसपास पड़े 10-12 पत्थर कुत्ते की ओर फेंक मारता है पर भाग्य से एक भी पत्थर उसे नहीं लगता है और वह कुत्ता भाग जाता है।
जैसे तैसे सेठजी अपना इलाज करवाकर ऑफिस पहुँचते हैं जहां उन्होंने अपने मैनेजर्स की बैठक बुलाई होती है….यहाँ अनचाहे ही कुत्ते पर आया उनका सारा गुस्सा उन बिचारे मैनेजर्स पर उतर जाता है।
वे प्रबन्धक भी मीटिंग से बाहर आते ही एक दूसरे पर भड़क जाते हैं….बॉस ने बगैर किसी वाजिब कारण के डांट जो दिया था।
अब दिन भर वे लोग ऑफिस में अपने नीचे काम करने वालों पर अपनी खीज निकलते हैं ऐसे करते करते आखिरकार सभी का गुस्सा अंत में ऑफिस के चपरासी पर निकलता है
जो मन ही मन बड़बड़ाते हुए भुनभुनाते हुए घर चला जाता है….घंटी की आवाज़ सुन कर उसकी पत्नी दरवाजा खोलती है और हमेशा की तरह पूछती है आज फिर देर हो गई आने में
वो लगभग चीखते हुए कहता है
मै क्या ऑफिस कंचे खेलने जाता हूँ ??
काम करता हूँ, दिमाग मत खराब करो मेरा….पहले से ही पका हुआ हूँ….चलो खाना परोसो
अब गुस्सा होने की बारी पत्नी की थी….रसोई मे काम करते वक़्त बीच बीच में आने पर वह पति का गुस्सा अपने बच्चे पर उतारते हुए उसे जमा के तीन चार थप्पड़ रसीद कर देती है…
अब बिचारा बच्चा जाए तो जाये कहाँ….घर का ऐसा बिगड़ा माहौल देख….बिना कारण अपनी माँ की मार खाकर वह रोते रोते बाहर का रुख करता है ,
एक पत्थर उठाता है और सामने जा रहे कुत्ते को पूरी ताकत से दे मारता है। कुत्ता फिर बिलबिलाता है…
दोस्तों ये वही सुबह वाला कुत्ता था….अरे भई उसको उसके काटे के बदले ये पत्थर तो पड़ना ही था….केवल समय का फेर था और सेठ जी की जगह इस बच्चे से पड़ना था….उसका कार्मिक चक्र तो पूरा होना ही था ना !!!
इसलिए मित्र यदि कोई आपको काट खाये, चोट पहुंचाए और आप उसका कुछ ना कर पाएँ तो निश्चिंत रहें….उसे चोट तो लग के ही रहेगी….बिलकुल लगेगी….जो आपको चोट पहुंचाएगा….उस का तो चोटिल होना निश्चित ही है, कब होगा किसके हाथों होगा ये केवल ऊपर वाला जानता है पर होगा ज़रूर….अरे भई ये तो सृष्टी का नियम है।

सब कुछ तेरा, सब कुछ तुझको अर्पण – छोटा प्रेरक प्रसंग

एक पुरानी कहानी है कि एक पण्डित जी ने अपनी पत्नी की आदत बना दी थी कि घर में रोटी खाने से पहले कहना है कि “विष्णु अर्पण” अगर पानी पीना हो तो पहले कहना है “विष्णु अर्पण” उस औरत की इतनी आदत पक्की हो गई कि जो भी काम करती पहले मन में यह कहती “विष्णु अर्पण” “विष्णुअर्पण” फिर वह काम करती एक दिन उसने घर का कूड़ा इक्कठा किया और फेंकते हुए कहा की “विष्णु अर्पण” “विष्णु अर्पण”
वहीँ पास से नारद मुनि जा रहे थे। नारद मुनि ने जब यह सुना तो उस औरत को थप्पड़ मारा और कहा:- विष्णु जी को कूड़ा अर्पण कर रही है फैक कूड़ा रही है और कह रही है कि “विष्णु अर्पण”! वह औरत विष्णु जी के प्रेम में रंगी हुई थी, कहने लगी नारद मुनि तुमने जो थप्पड़ मारा है वो थप्पड़ भी “विष्णु अर्पण” अब नारद जी ने दुसरे गाल पर थप्पड़ मारते हुए कहा कि बेकूफ़ औरत तू थप्पड़ को भी विष्णु अर्पण कह रही है। लेकिन उस औरत फिर यही कहा आपका मार यह थप्पड़ भी “विष्णु अर्पण”!
जब नारद मुनि विष्णु पूरी में गए तो क्या देखते है कि विष्णु जी के दोनों गालों पर उँगलियों के निशान बने हुए थे। नारद पूछने लगे:- भगवन यह क्या हो गया? आप जी के चेहरे पर यह निशान कैसे पड़े?
विष्णु जी कहने लगे कि नारद मुनि थप्पड़ मारे भी तू और पूछे भी तू! नारद जी कहने लगे की मैं आप को थप्पड़ कैसे मार सकता हूँ?
विष्णु जी कहने लगे नारद मुनि जिस औरत ने कूड़ा फेंकते हुए यह कहा था की विष्णु अर्पण और तुने उस को थप्पड़ मारा था तो वह थप्पड़ सीधे मेरे को ही लगा था , क्योकि वह मुझे अर्पण था!
कथा सार :- जब आप कर्म करते समय कर्ता का भाव निकाल लेते है। और अपने हर काम में मै मेरी मेरा की भावना हटा कर अपने इष्ट या सतगुरु को आगे रखते है तो करमो का बोझ भी नहीं बढ़ता और वो काम आप से भी अच्छे तरीके से होता है ।

परिपूर्ण कोई नहीं – लघु प्रेरक प्रसंग बोध कथा

किसी व्यक्ति में या किसी वस्तु में थोड़ा सा भी अवगुण देखकर कई व्यक्ति आग−बबूला हो उठते हैं और उसकी उस छोटी सी बुराई को ही बढ़ा-चढ़ाकर कल्पित करते हुए ऐसा मान बैठते हैं मानों यही सबसे खराब हो। अपनी एक बात किसी ने नहीं मानी तो उसे अपना पूरा शत्रु ही समझ बैठते हैं। जीवन में अनेकों सुविधाऐं रहते हुए भी यदि कोई एक असुविधा है तो उन सुविधाओं की प्रसन्नता अनुभव न करते हुए सदा उस अभाव का ही चिंतन करके खिन्न बने रहते हैं। ऐसे लोगों को सदा संताप और क्रोध की आग में ही झुलसते रहना पड़ेगा। इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें कोई दोष-दुर्गुण नहीं और न ही कोई वस्तु ऐसी है जो सब प्रकार हमारे अनुकूल ही हो। सब व्यक्ति सदा वही आचरण करें जो हमें पसंद है ऐसा हो नहीं सकता।
सदा मनचाही परिस्थितियाँ किसे मिली हैं? किसी को समझौता करके जो मिला है उस पर सन्तोष करते हुए यथासंभव सुधार करते चलने की नीति अपनानी पड़ी है तभी वह सुखी रह सकता है। जिसने कुछ नहीं, या सब कुछ की माँग की है उसे क्षोभ के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है। अपनी धर्मपत्नी में कई अवगुण भी हो सकते हैं यदि उन अवगुणों पर ही ध्यान रखा जाय तो वह बहुत दुखदायक प्रतीत होगी। किन्तु यदि उसके त्याग, आत्म-समर्पण, वफादारी, सेवा-बुद्धि, उपयोगिता, उदारता एवं निस्वार्थता की कितनी ही विशेषताओं का देर तक चिन्तन करें तो लगेगा कि वह साक्षात् देवी के रूप में हमारे घर अवतरित हुई है। उसी प्रकार पिता−माता के एक कटुवाक्य पर क्षुब्ध हो उठने उपकार, वात्सल्य एवं सहायता की लम्बी शृंखला पर विचार करें तो उत्तेजनावश कह दिया गया एक कटु शब्द बहुत ही तुच्छ प्रतीत होगा। मन को बुराई के बीच अच्छाई ढूँढ़ निकालने की आदत डालकर ही हम अपनी प्रसन्नता को कायम रख सकते है।

सत्संग बड़ा है या तप

एक बार विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी में इस बात‌ पर बहस हो गई,
कि सत्संग बड़ा है या तप???
विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या करके ऋध्दी-सिध्दियों को प्राप्त किया था,
इसीलिए वे तप को बड़ा बता रहे थे।
जबकि वशिष्ठ जी सत्संग को बड़ा बताते थे।
वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए।
उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूं।
आप विष्णु जी के पास जाइये।
विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देगें।
अब दोनों विष्णु जी के पास चले गए।
विष्णु जी ने सोचा- यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे,
और यदि तप को बड़ा बताता हूं तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा।
इसीलिए उन्होंने भी यह कहकर उन्हें टाल दिया,
कि मैं सृष्टि का पालन करने मैं व्यस्त हूं।
आप शंकर जी के पास चले जाइये।
अब दोनों शंकर जी के पास पहुंचे।
शंकर जी ने उनसे कहा- ये मेरे वश की बात नहीं है।
इसका फैसला तो शेषनाग जी कर सकते हैं।
अब दोनों शेषनाग जी के पास गए।
शेषनाग जी ने उनसे पूछा- कहो ऋषियों! कैसे आना हुआ।
वशिष्ठ जी ने बताया- हमारा फैसला कीजिए,
कि तप बड़ा है या सत्संग बड़ा है?
विश्वामित्र जी कहते हैं कि तप बड़ा है,
और मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं।
शेषनाग जी ने कहा- मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूं,
यदि आप में से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा ले,
तो मैं आपका फैसला कर दूंगा।
तप में अहंकार होता है,
और विश्वामित्र जी तपस्वी थे।
उन्होंने तुरन्त अहंकार में भरकर शेषनाग जी से कहा- पृथ्वी को आप मुझे दीजिए।
विश्वामित्र ने पृथ्वी अपने सिर पर ले ली।
अब पृथ्वी नीचे की और चलने लगी।
शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! रोको।
पृथ्वी रसातल को जा रही है।
विश्वामित्र जी ने कहा- मैं अपना सारा तप देता हूं,
पृथ्वी रूक जा।
परन्तु पृथ्वी नहीं रूकी।
ये देखकर वशिष्ठ जी ने कहा- मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूं,
पृथ्वी माता रूक जा।
पृथवी वहीं रूक गई।
अब शेषनाग जी ने पृथ्वी को अपने सिर पर ले लिया,
और उनको कहने लगे- अब आप जाइये।
विश्वामित्र जी कहने लगे- लेकिन हमारी बात का फैसला तो हुआ नहीं है।
शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! फैसला तो हो चुका है।
आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रूकी,
और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रूक गई।
फैसला तो हो गया है कि तप से सत्संग ही बड़ा होता है।.:!
इसीलिए-
हमें नियमित रूप से सत्संग सुनना चाहिए।…
कभी भी या जब भी, आस-पास कहीं सत्संग हो,
उसे सुनना और उस पर अमल करना चाहिए।.:!
सत्संग की आधी घड़ी
तप के वर्ष हजार
तो भी नहीं बराबरी
संतन कियो विचार

परमात्मा से सम्बन्ध

एक बार एक पंडित जी ने एक दुकानदार के पास पांच सौ रुपये रख दिए।
उन्होंने सोचा कि जब मेरी बेटी की शादी होगी तो मैं ये पैसा ले लूंगा।
कुछ सालों के बाद जब बेटी सयानी हो गई,
तो पंडित जी उस दुकानदार के पास गए।
लेकिन दुकानदार ने नकार दिया और बोला- आपने कब मुझे पैसा दिया था?
बताइए! क्या मैंने कुछ लिखकर दिया है?
पंडित जी उस दुकानदार की इस हरकत से बहुत ही परेशान हो गए और बड़ी चिंता में डूब गए।
फिर कुछ दिनों के बाद पंडित जी को याद आया,
कि क्यों न राजा से इस बारे में शिकायत कर दूं।
ताकि वे कुछ फैसला कर देंगे और मेरा पैसा मेरी बेटी के विवाह के लिए मिल जाएगा।
फिर पंडित जी राजा के पास पहुंचे और अपनी फरियाद सुनाई।
राजा ने कहा- कल हमारी सवारी निकलेगी और तुम उस दुकानदार की दुकान के पास में ही खड़े रहना।
दूसरे दिन राजा की सवारी निकली।
सभी लोगों ने फूलमालाएं पहनाईं और किसी ने आरती उतारी।
पंडित जी उसी दुकान के पास खड़े थे।
जैसे ही राजा ने पंडित जी को देखा,
तो उसने उन्हें प्रणाम किया और कहा- गुरु जी! आप यहां कैसे?
आप तो हमारे गुरु हैं।
आइए! इस बग्घी में बैठ जाइए।
वो दुकानदार यह सब देख रहा था।
उसने भी आरती उतारी और राजा की सवारी आगे बढ़ गई।
थोड़ी दूर चलने के बाद राजा ने पंडित जी को बग्घी से नीचे उतार दिया और कहा- पंडित जी! हमने आपका काम कर दिया है।
अब आगे आपका भाग्य।
उधर वो दुकानदार यह सब देखकर हैरान था,
कि पंडित जी की तो राजा से बहुत ही अच्छी सांठ-गांठ है।
कहीं वे मेरा कबाड़ा ही न करा दें।
दुकानदार ने तत्काल अपने मुनीम को पंडित जी को ढूंढ़कर लाने को कहा।
पंडित जी एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे।
मुनीम जी बड़े ही आदर के साथ उन्हें अपने साथ ले आए।
दुकानदार ने आते ही पंडित जी को प्रणाम किया और बोला- पंडित जी! मैंने काफी मेहनत की और पुराने खातों को‌ देखा,
तो पाया कि खाते में आपका पांच सौ रुपया जमा है।
और पिछले दस सालों में ब्याज के बारह हजार रुपए भी हो गए हैं।
पंडित जी! आपकी बेटी भी तो मेरी बेटी जैसी ही है।
अत: एक हजार रुपये आप मेरी तरफ से ले जाइए,
और उसे बेटी की शादी में लगा दीजिए।
इस प्रकार उस दुकानदार ने पंडित जी को तेरह हजार पांच सौ रुपए देकर बड़े ही प्रेम के साथ विदा किया।
तात्पर्य –
जब मात्र एक राजा के साथ सम्बन्ध होने भर से हमारी विपदा दूर जो जाती है,
तो हम अगर हम खुद से (जो कि परमात्मा का अंश है) और इस दुनिया के राजा यानि कि परमात्मा से अपना सम्बन्ध जोड़ लें,
तो हमें कोई भी समस्या, कठिनाई या फिर हमारे साथ किसी भी तरह के अन्याय का तो कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होगा।
तो हमेशा से उस परमात्मा का धन्यवाद करते रहे। ओर उनके समीप रहे।

गृहस्थ या साधु ?

एक व्यक्ति कबीरजी के पास गया और बोला- मेरी शिक्षा तो समाप्त हो गई। अब मेरे मन में दो बातें आती हैं, एक यह कि विवाह करके गृहस्थ जीवन यापन करूँ या संन्यास धारण करूँ? इन दोनों में से मेरे लिए क्या अच्छा रहेगा यह बताइए?
कबीरजी ने कहा दोनों ही बातें अच्छी है जो भी करना हो,वह सोच-समझकर करो,और वह उच्चकोटि का हो। उस व्यक्ति ने पूछा उच्चकोटि का करना चाहिए। उस व्यक्ति ने पूछा उच्चकोटि का कैसे है? कबीरजी ने कहा- किसी दिन प्रत्यक्ष देखकर बतायेंगे वह व्यक्ति रोज उत्तर प्रतीक्षा में कबीर के पास आने लगा।
एक दिन कबीरजी दिन के बारह बजे सूत बुन रहे थे। खुली जगह में प्रकाश काफी था कबीर साहेब ने अपनी धर्म पत्नी को दीपक लाने का आदेश दिया। वह तुरन्त बिना किसी सवाल के जलाकर लाई और उनके पास रख गई। दीपक जलता रहा वे सूत बुनते रहे।
सायंकाल को उस व्यक्ति को लेकर कबीरजी एक पहाड़ी पर गए। जहाँ काफी ऊँचाई पर एक बहुत वृद्ध साधु कुटी बनाकर रहते थे। कबीरजी ने साधु को आवाज दी। महाराज आपसे कुछ जरूरी काम है कृपया नीचे आइए। बूढ़ा बीमार साधु मुश्किल से इतनी ऊँचाई से उतर कर नीचे आया। कबीरजीने पूछा आपकी आयु कितनी है यह जानने के लिए नीचे बुलाया है। साधु ने कहा अस्सी बरस। यह कह कर वह फिर से ऊपर चढ़ा। बड़ी कठिनाई से कुटी में पहुँचा। कबीरजी ने फिर आवाज दी और नीचे बुलाया। साधु फिर आया। उससे पूछा- आप यहाँ पर कितने दिन से निवास करते है? उनने बताया चालीस वर्ष से। फिर जब वह कुटी में पहुँचे तो तीसरी बार फिर उन्हें इसी प्रकार बुलाया और पूछा- आपके सब दाँत उखड़ गए या नहीं? उसने उत्तर दिया। आधे उखड़ गए। तीसरी बार उत्तर देकर वह ऊपर जाने लगा तब इतने चढ़ने उतरने से साधु की साँस फूलने लगी, पाँव काँपने लगे। वह बहुत अधिक थक गया था फिर भी उसे क्रोध तनिक भी न था।
अब कबीरजी अपने साथी समेत घर लौटे तो साथी ने अपने प्रश्न का उत्तर पूछा। उनने कहा तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में यह दोनों घटनायें उपस्थित है। यदि गृहस्थ बनाना हो तो ऐसे जीवनसाथी का चयन करना चाहिये जो हम पर पूरा भरोसा रखें और हमारा कहना सहजता से मानें, कि उसे दिन में भी दीपक जलाने की मेरी आज्ञा अनुचित नहीं मालूम पड़ी ,उसनें व्यर्थ कुतर्क नहीं किया और साधु बनना हो तो ऐसा बनना चाहिए कि कोई कितना ही परेशान करे क्रोध व शोक न हो,हम सहज रहें।

कर्म नहीं छोड़ते

मादा बिच्छू की मृत्यु बहुत ही दुखदाई रूप में होती है। मादा बिच्छू जब अपने बच्चों को जन्म देती है, तब ये सभी बच्चे जन्म लेते ही अपनी मां की पीठ पर बैठ जाते हैं और अपनी भूख मिटाने हेतु तुरंत ही अपनी मां के शरीर को ही खाना प्रारंभ कर देते हैं, और तब तक खाते हैं, जब तक कि उसकी केवल अस्थियां ही शेष ना रह जाएं। वो तड़पती है और कराहती है, लेकिन ये बच्चे पीछा नहीं छोड़ते। और ये बच्चे उसे पलभर में ही नहीं मार देते, बल्कि कई दिनों तक मादा बिच्छू मौत से बदतर और असहनीय पीड़ा को झेलती हुई दम तोड़ती है। मादा बिच्छू की मौत होने के पश्चात् ही ये सभी बच्चे उसकी पीठ से नीचे उतरते हैं।
चौरासी लाख के कुचक्र में ऐसी असंख्य योनियां हैं, जिनकी स्थितियां अज्ञात हैं। कदाचित्, इसीलिए भवसागर को अगम और अपार कहा गया है। संतमत के मुताबिक यह भी मनुष्य योनि में किए गये कर्मों का ही भुगतान है। अर्थात्, इंसान इस मनुष्य जीवन में जो भी कर्म करेगा, नाना प्रकार की असंख्य योनियों में इन कर्मों के आधार पर ही उसे दुःख और सुख मिलते रहेंगे। यह तय है।
मनुष्य जन्म बड़ी ही मुश्किल से मिला है। ये जो गलियों में आवारा जानवर घूम रहे हैं न, इन्हें भी कभी मनुष्य जन्म मिला था और इनमें से भी कोई सेठ-साहूकार या कुछ और होंगे। इनके गुरु भी इन्हें नाम का भजन करने को कहते थे, तो ये भी हंस कर जवाब देते थे कि अभी हमारे पास समय नहीं है। वो मनुष्य जन्म हार गए, परमात्मा की भजन बंदगी नहीं की और पशु योनि में आ गए। अब देखो समय ही समय है, लेकिन अब गुरू नहीं है। बेचारे गली-गली आवारा घूमते हैं। कोई दुत्कारता है, तो कोई फटकारता है। कर्म बहुत रुलाते हैं और किसी को भी नहीं छोड़ते हैं।
अगर हम अब भी नहीं समझेंगे, तो कब समझेंगे?
परमात्मा की बंदगी कर्मफलों को भी धो डालती है। हमें चाहिए कि हम नियमित परमात्मा का भजन-सिमरन करते रहें और उसका शुक्रिया अदा करते रहें।

एक 65 वर्षीय रिसाइकिल्ड नौजवान के जीवन का अनुभव

कृपया अंत तक पढ़ने का टेंशन न लें, जहां तक इच्छा हो वहीं तक पढ़ें…
जीवन मर्यादित है और उसका जब अंत होगा, तब इस लोक की कोई भी वस्तु साथ नहीं जाएगी ! फिर ऐसे में कंजूसी कर, पेट काट कर बचत क्यों की जाए ? आवश्यकतानुसार खर्च क्यों न करें ? जिन बातों में आनंद मिलता है, वे करनी हीं चाहिए। हमारे जाने के पश्चात क्या होगा, कौन क्या कहेगा, इसकी चिंता छोड़ दें, क्योंकि देह के पंचतत्व में विलीन होने के बाद कोई तारीफ करे या टीका टिप्पणी, क्या फर्क पड़ता है ? बुढ़ापे तक पहुँचते पहुँचते कमाए हुए धन का आनंद लेने का वक्त निकल चुका होता है। अपने बच्चों की जरूरत से अधिक फिक्र न करें उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजने दें। अपना भविष्य स्वयं बनाने दें। उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और सपनों के गुलाम आप न बनें। बच्चों से प्रेम करें, उनकी परवरिश करें, उन्हें गिफ्ट भी दें, लेकिन कुछ आवश्यक पैसा स्वयं अपनी आकांक्षाओं पर भी खर्च करें।
जन्म से लेकर मृत्यु तक सिर्फ कष्ट सहते रहना हीं जीवन नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि आप पचास वर्ष पूरे कर चुके हैं, तो अब जीवन और हैल्थ से खिलवाड़ कर के पैसे कमाना अनुचित है, क्योंकि अब इसके बाद पैसे खर्च करके भी आप हैल्थ खरीद नहीं सकते। इस आयु में दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं – पैसा कमाने का कार्य कब बन्द करें और कितने पैसे से आपका शेष जीवन सुरक्षित रूप से कट जाएगा। आपके पास अनेक मकान हों, तो भी रात में सोने के लिए एक कमरा चाहिए । एक दिन भी चिन्ता में बीते, तो आपने जीवन का एक दिन गवाँ दिया और एक दिन हँसते मुस्कराते आनंद में बीता तो एक दिन आपने कमा लिया समझिए। यदि आप खुशमिजाज हैं, तो बीमार होने पर भी बहुत जल्द स्वस्थ होंगे और यदि सदा प्रफुल्लित रहते हैं, तो कभी बीमार हीं नहीं होंगे।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आपके आसपास जो भी अच्छाई है, शुभ है, सुन्दर है, उसका आनंद लें और उसे संभालकर रखें। अपने मित्रों को कभी न भूलें। उनसे हमेशा अच्छे संबंध बनाकर रखें। ध्यान रखें बुढ़ापे में नए दोस्त नहीं बनते, पुराने दोस्तों को हीं संभाल कर रखें। अगर आपके दोस्त होंगे तो आप हमेशा दिल से युवा रहेंगे, खुश रहेंगे ध्यान रखें दोस्त कभी बूढ़ा नहीं होने देते। मित्र न हो, तो अकेले पड़ जाएंगे, बोर हो जाएंगे , बीमार पड़ जाएंगे और जल्दी बूढे हो जाएंगे और यह अकेलापन बहुत भारी पड़ेगा। इसलिए रोज किसी भी माध्यम से संपर्क में रहें, अपने दोस्त को सुबह शाम कम से कम एक सन्देश ज़रूर भेजिए।
हँसते-हँसाते रहिये, एक दूसरे की तारीफ करते रहिए जितनी आयु बची है, उतनी आनंद में व्यतीत करें।

कर्मों की सजा

एक भिखारी रोज एक दरवाजे पर जाता और भीख के लिए आवाज लगाता, और जब घर मालिक बाहर आता तो उसे गंदी-गंदी गालिया और ताने देता, मर जाओ, काम क्यूं नही करतें, जीवन भर भीख मांगतें रहोगे, कभी-कभी गुस्सें में उसे धकेल भी देता, पर भिखारी बस इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारें पापों को क्षमा करें,एक दिन सेठ बड़े गुस्सें में था, शायद व्यापार में घाटा हुआ था, वो भिखारी उसी वक्त भीख मांगने आ गया, सेठ ने आव देखा ना ताव, सीधा उसे पत्थर दे मारा, भिखारी के सर से खून बहने लगा, फिर भी उसने सेठ से कहा ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करें, और वहां से जाने लगा, सेठ का थोड़ा गुस्सा कम हुआ, तो वहां सोचने लगा मैंने उसे पत्थर से भी मारा पर उसने बस दुआ दी, इसके पीछे क्या रहस्य है जानना पड़ेगा, और वह भिखारी के पीछे चलने लगा,भिखारी जहाँ भी जाता सेठ उसके पीछे जाता, कही कोई उस भिखारी को कोई भीख दे देता तो कोई उसे मारता, जलील करता गालियाँ देता , पर भिखारी इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करें, अब अंधेरा हो चला था, भिखारी अपने घर लौट रहा था, सेठ भी उसके पीछे था, भिखारी जैसे ही अपने घर लौटा, एक टूटी फूटी खाट पे, एक बुढिया सोई थी, जो भिखारी की पत्नी थी, जैसे ही उसने अपने पति को देखा उठ खड़ी हुई और भीख का कटोरा देखने लगी, उस भीख के कटोरे मे मात्र एक आधी बासी रोटी थी, उसे देखते ही बुढिया बोली बस इतना ही और कुछ नही, और ये आपका सर कहा फूट गया ?
भिखारी बोला, हाँ बस इतना ही किसी ने कुछ नही दिया सबने गालिया दी, पत्थर मारें, इसलिए ये सर फूट गया, भिखारी ने फिर कहा सब अपने ही पापों का परिणाम हैं, याद है ना तुम्हें, कुछ वर्षो पहले हम कितने रईस हुआ करते थे, क्या नही था हमारे पास, पर हमने कभी दान नही किया, याद है तुम्हें वो अंधा भिखारी, बुढिया की ऑखों में ऑसू आ गये और उसने कहा हाँ, कैसे हम उस अंधे भिखारी का मजाक उडाते थे, कैसे उसे रोटियों की जगह खाली कागज रख देते थे, कैसे हम उसे जलील करते थे । कैसे हम उसे कभी_कभी मार और धकेल देते थे, अब बुढिया ने कहा हाँ सब याद है मुझे, कैसे मैंने भी उसे राह नही दिखाई और घर के बनें नालें में गिरा दिया था, जब भी वहाँ रोटिया मांगता मैंने बस उसे गालियाँ दी, एक बार तो उसका कटोरा तक फेंक दिया,और वो अंधा भिखारी हमेशा कहता था, तुम्हारे पापों का हिसाब ईश्वर करेंगे, मैं नही, आज उस भिखारी की बद्दुआ और हाय हमें ले डूबी,फिर भिखारी ने कहा, पर मैं किसी को बद्दुआ नही देता, चाहे मेरे साथ कितनी भी ज्यादती क्यूँ ना हो जाए, मेरे लब पर हमेशा दुआ रहती हैं, मैं अब नही चाहता की ,
कोई और इतने बुरे दिन देखे, मेरे साथ अन्याय करने वालों को भी मैं दुआ देता हूं, क्यूकि उनको मालूम ही नही, वो क्या पाप कर रहें है, जो सीधा ईश्वर देख रहा हैं, जैसी हमने भुगती है, कोई और ना भुगते, इसलिए मेरे दिल से बस अपना हाल देख दुआ ही निकलती हैं । सेठ चुपके_चुपके सब सुन रहा था, उसे अब सारी बात समझ आ गयी थी, बुढे_बुढिया ने आधी रोटी को दोनो मिलकर खाया, और प्रभु की महिमा है बोल कर सो गयें, अगले दिन, वहाँ भिखारी भीख मांगने सेठ कर यहाँ गया, सेठ ने पहले से ही रोटिया निकल के रखी थी, उसने भिखारी को दी और हल्की से मुस्कान भरे स्वर में कहा, माफ करना बाबा, गलती हो गयी, भिखारी ने कहा, ईश्वर तुम्हारा भला करे, और वो वहाँ से चला गया,सेठ को एक बात समझ आ गयी थी, इंसान तो बस दुआ_बद्दुआ देते है पर पूरी वो ईश्वर वो जादूगर कर्मो के हिसाब से करता हैं।
इस जन्म में ना मिले पर भव में मिलता है, अपने-अपने कर्मों का फल सबको मिलता है, हो सके तो बस अच्छा करें, वो दिखता नही है तो क्या हुआ, सब का हिसाब पक्का रहता है उसके पास ।

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