prerak prasang short story hindi

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उम्मीद का दीया

एक घर मे पांच दिए जल रहे थे। एक दिन पहले एक दिए ने कहा – इतना जलकर भी मेरी रोशनी की लोगो को कोई कदर नही है, तो बेहतर यही होगा कि मैं बुझ जाऊं।
वह दिया खुद को व्यर्थ समझ कर बुझ गया। जानते है वह दिया कौन था? वह दिया था उत्साह का प्रतीक यह देख दूसरा दिया जो शांति का प्रतीक था, कहने लगा – मुझे भी बुझ जाना चाहिए। निरंतर शांति की रोशनी देने के बावजूद भी लोग हिंसा कर रहे है।
और शांति का दिया बुझ गया। उत्साह और शांति के दिये के बुझने के बाद जो तीसरा दिया हिम्मत का था, वह भी अपनी हिम्मत खो बैठा और बुझ गया।
उत्साह, शांति और अब हिम्मत के न रहने पर चौथे दिए ने बुझना ही उचित समझा। चौथा दिया समृद्धि का प्रतीक था।
सभी दिए बुझने के बाद केवल पांचवां दिया अकेला ही जल रहा था। हालांकि पांचवां दिया सबसे छोटा था मगर फिर भी वह निरंतर जल रहा था। तब उस घर मे एक लड़के ने प्रवेश किया। उसने देखा कि उस घर मे सिर्फ एक ही दिया जल रहा है। वह खुशी से झूम उठा। चार दिए बुझने की वजह से वह दुखी नही हुआ बल्कि खुश हुआ। यह सोचकर कि कम से कम एक दिया तो जल रहा है।
उसने तुरंत पांचवां दिया उठाया और बाकी के चार दिए फिर से जला दिए । जानते है वह पांचवां अनोखा दिया कौन सा था ? वह था उम्मीद का दिया ।
चाहे सब दिए बुझ जाए लेकिन उम्मीद का दिया नही बुझना चाहिए। ये एक ही दिया काफी है बाकी सब दियों को जलाने के लिए ।

प्रथम अवसर – आज का विचार

एक किसान की बहुत ही सुन्दर बेटी थी। एक नौजवान लड़का उस किसान की बेटी से शादी की इच्छा लेकर किसान के पास आया।
उसने किसान की बेटी से शादी करने की इच्छा जताई। किसान ने उसकी ओर देखा और कहा- युवक तुम खेत में जाओ, मैं एक-एक करके तीन बैल छोड़ने वाला हूँ। यदि तुम तीनों बैलों में से किसी एक की भी पूँछ पकड़ लो तो मैं अपनी बेटी की शादी तुमसे कर दूंगा।
नौजवान इस आसान शर्त को सुनकर खुश हो गया और खेत में बैल की पूँछ पकड़ने की मुद्रा लेकर खडा हो गया। किसान ने खेत में स्थित घर का दरवाजा खोला। तभी एक बहुत ही बड़ा और खतरनाक बैल उसमें से निकला। नौजवान ने ऐसा बैल पहले कभी नहीं देखा था। अतः उससे डर कर नौजवान ने निर्णय लिया कि वह अगले बैल का इंतज़ार करेगा और वह एक तरफ हो गया जिससे बैल उसके पास से होकर निकल गया।
दरवाजा फिर खुला, आश्चर्यजनक रूप से इस बार पहले से भी बड़ा और भयंकर बैल निकला। नौजवान ने सोचा कि इससे तो पहला वाला बैल ठीक था। फिर उसने एक ओर होकर बैल को निकल जाने दिया।
दरवाजा तीसरी बार खुला, नौजवान के चहरे पर मुस्कान आ गई। इस बार एक छोटा और मरियल बैल निकला। जैसे ही बैल नौजवान के पास आने लगा, नौजवान ने उसकी पूँछ पकड़ने के लिए मुद्रा बना ली ताकि उसकी पूँछ सही समय पर पकड़ ले। पर यह क्या उस बैल की तो पूँछ ही नहीं थी।
शिक्षा:-
हर एक इंसान की जिन्दगी अवसरों से भरी हुई है। कुछ सरल हैं और कुछ कठिन। पर अगर एक बार अवसर गंवा दिया तो फिर वह अवसर दुबारा नहीं मिलेगा। अतः हमेशा प्रथम अवसर को हासिल करने का प्रयास करना चाहिए..!!
आपने शायद सुना भी होगा।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि कभी भी किसी भी काम को कल पर मत छोड़ो, जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो । क्या पता कहीं अगले ही पल में प्रलय आ जाये और जीवन का अंत हो जाए, तब तो आपके सभी काम अपूर्ण ही रह जायेंगे अर्थात अपने किसी भी काम को समय के भरोसे नहीं टालना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता ।

चित्रकार की गलती

किसी शहर में एक प्रसिद्द चित्रकार रहता था । देश-विदेश में उसकी चित्र प्रदर्शनी देखने हजारों लोग आते थे और उसके काम की प्रशंसा करते नहीं थकते थे ।

एक बार उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नही कि लोग सिर्फ उसके मुंह पे उसकी तारीफ़ करते हैं और पीठ पीछे उसके काम में कमी निकालते हैं ।
यही सोच कर उसने अपनी बनायी एक मशहूर पेंटिंग सुबह-सुबह शहर के एक व्यस्त चौराहे पर लगा दी और नीचे लिख दिया- जिसे भी इस पेंटिंग में कहीं कोई कमी नज़र आये वह उस जगह एक निशान लगा दे।
शाम को जब वो पेंटिंग देखने चौराहे पर गया तो उसकी आँखें फटी-फटी रह गयीं… पेंटिंग पे सैकड़ों निशान लगे हुए थे. वह बहुत निराश हो गया और चुपचाप पेटिंग उठा कर अपने घर चला गया।
इस घटना का उसपर बहुत बुरा असर हुआ. उसने चित्रकारी करना छोड़ दिया और लोगों से मिलने-जुलने से भी कतराने लगा। एक दिन उसके किसी दोस्ती ने उसकी निराश का कारण पूछा तब उसने उदास मन से उस दिन की घटना सुना डाली,
मित्र बोला, “एक काम करते हैं हम एक बार और तुम्हारी बनायी कोई पेटिंग उस चौराहे पर रखते हैं.”
और अगली सुबह उन्होंने चौराहे पर एक नयी पेंटिंग लगा दी. पेटिंग लगाने के बाद चित्रकार उसके नीचे फिर से वही लाइन लिखने जा रहा था कि “ जिसे भी इस पेंटिंग में कहीं कोई कमी नज़र आये वह उस जगह एक निशान लगा दे. “ कि तभी दोस्त ने उसे रोका और कहा इस बार लिखो- जिस किसी को भी इस पेंटिंग में कहीं भी कोई कमी दिखाई दे उसे सही कर दे।
शाम को जब दोनों दोस्त उस पेंटिंग को देखने गया तो उन्होंने देखा कि पेंटिंग जैसी सुबह थी अभी भी बिलकुल वैसी की वैसी ही है।
दोस्त चित्रकार को देखकर मुस्कुराया और बोला, “कुछ समझे…. कोई भी मूर्ख गलतियाँ निकाल सकता है और ज्यादातर मूर्ख निकालते ही हैं…लेकिन गलतियाँ सुधारने वाले बहुत कम ही लोग होते हैं… बेकार में ऐसे लोगों की राय लेने का कोई फायदा नहीं जो सिर्फ और सिर्फ दूसरों मीन मेख निकालना चाहते हैं… उन्हें नीचा दिखाना चाहते हैं…. लेकिन उनको सुधारने के लिए न उनके पास समय है और न ज्ञान । इसलिये गलती तुम्हारे चित्र में नहीं बल्कि गलती ऐसे लोगों से सलाह मांगने में है!”
चित्रकार अपने दोस्त की बात समझ चुका था और अब वह दुबारा अपना मनपसंद काम करने लगा… वह पेंटिंग्स बनाने लगा।
दोस्तों इस कहानी से हमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातें सीखने को मिलती हैं- हमें हर किसी से उसकी “सलाह” या “advice” नहीं लेनी चाहिए।
यदि हमें सलाह लेनी ही है तो अपनी फील्ड के एक्सपर्ट से ही सलाह या फीडबैक लें, हमें वो इंसान बनने से बचना चाहिए जो सिर्फ गलतियाँ निकालना जानता है।
हमें वो इंसान बनना चाहिए जो औरों की गलती को सुधार कर उनके जीवन को सकारात्मक बना सके।

महिला शक्ति

एक प्यासा आदमी कुएं के पास गया, वहां एक औरत पानी भर रही थी। औरत ने प्यासे आदमी को पानी पिलाया उसके बाद उस आदमी ने औरत से पूछा कि आप मुझे औरतों की चालाकी के बारे में बताओ।
इतना कहने पर वह औरत जोर-जोर से चिल्लाने लगी बचाओ-बचाओ। इतना सुनकर गांव के लोग कुएं की तरह दौड़ने लगे तो उस आदमी ने कहा कि तुम ऐसा क्यों कर रही हो।
उस औरत ने कहा ताकि गांव वाले आएं और आपको खूब पीटें। इतना पीटें की पीट-पीटकर आप को मार डालें तो उस आदमी ने कहा मुझे माफ करें, मैं तो आपको एक भली और नेक इज्ज़तदार औरत समझ रहा था।
औरत ने मटके का सारा पानी अपने बदन पर डाल लिया। गांव वाले आए तो पूछा कि क्या हुआ। औरत ने कहा मैं कुएं में गिर गई थी। इस भले आदमी ने मुझको बचा लिया। गांव वालों ने उस आदमी की तारीफ की और उसको कंधों पर उठा लिया उसको खुश कर दिया और उसको इनाम भी दिया।
जब गांव वाले चले गए तो औरत ने उस मुसाफ़िर से कहा अगर तुम औरत को तकलीफ दोगे तो वो तुम्हारे सुख और चैन छीन लेगी। अगर खुश रखोगे तो तुम्हें मौत के मुंह से भी निकाल लेगी ।

हंस और काग

पुराने जमाने में एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे, एक गरीब था तो दूसरा अमीर..दोनों पड़ोसी थे..,,गरीब ब्राम्हण की पत्नी ,उसे रोज़ ताने देती , झगड़ती ।
एक दिन ग्यारस के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आ जंगल की ओर चल पड़ता है , ये सोच कर , कि जंगल में शेर या कोई मांसाहारी जीव उसे मार कर खा जायेगा , उस जीव का पेट भर जायेगा और मरने से वो रोज की झिक झिक से मुक्त हो जायेगा । जंगल में जाते उसे एक गुफ़ा नज़र आती है…वो गुफ़ा की तरफ़ जाता है…। गुफ़ा में एक शेर सोया होता है और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा होता है.. हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़ सोचता है..ये ब्राह्मण आयेगा ,शेर जगेगा और इसे मार कर खा जायेगा… ग्यारस के दिन मुझे पाप लगेगा…इसे बचायें कैसे ?
उसे उपाय सुझता है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते कहता है..ओ जंगल के राजा… उठो, जागो..आज आपके भाग खुले हैं, ग्यारस के दिन खुद विप्रदेव आपके घर पधारे हैं, जल्दी उठें और इन्हे दक्षिणा दें रवाना करें…आपका मोक्ष हो जायेगा.. ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये, आपको पशु योनी से छुटकारा मिल जायेगा । शेर दहाड़ कर उठता है , हंस की बात उसे सही लगती है, और पूर्व में शिकार हुए मनुष्यों के गहने थे वे सब के सब उस ब्राह्मण के पैरों में रख , शीश नवाता है, जीभ से उनके पैर चाटता है।

हंस ब्राह्मण को इशारा करता है विप्रदेव ये सब गहने उठाओ और जितना जल्द हो सके वापस अपने घर जाओ…ये सिंह है.. कब मन बदल जाय।
ब्राह्मण बात समझता है घर लौट जाता है..पडौसी अमीर ब्राह्मण की पत्नी को जब सब पता चलता है तो वो भी अपने पति को जबरदस्ती अगली ग्यारस को जंगल में उसी शेर की गुफा की ओर भेजती है…. अब शेर का पहेरादार बदल जाता है..नया पहरेदार होता है “कौवा”
जैसे कौवे की प्रवृति होती है वो सोचता है … बढीया है ..ब्राह्मण आया.. शेर को जगाऊं … 
शेर की नींद में ख़लल पड़ेगी, गुस्साएगा, ब्राह्मण को मारेगा, तो कुछ मेरे भी हाथ लगेगा, मेरा पेट भर जायेगा…
ये सोच वो कांव.. कांव.. कांव…चिल्लाता है..शेर गुस्सा हो जगता है..दूसरे ब्राह्मण पर उसकी नज़र पड़ती है , उसे हंस की बात याद आ जाती है.. वो समझ जाता है, कौवा क्यूं कांव..कांव कर रहा है…
वो अपने, पूर्व में हंस के कहने पर किये गये धर्म को खत्म नहीं करना चाहता..पर फिर भी नहीं शेर,शेर होता है जंगल का राजा…
वो दहाड़ कर ब्राह्मण को कहता है..””हंस उड़ सरवर गये और अब काग भये प्रधान…थे तो विप्रा थांरे घरे जाओ,,,,मैं किनाइनी जिजमान, अर्थात हंस जो अच्छी सोच वाले अच्छी मनोवृत्ति वाले थे उड़ के सरोवर यानि तालाब को चले गये है और अब कौवा प्रधान पहरेदार है जो मुझे तुम्हें मारने के लिये उकसा रहा है..मेरी बुध्दी घूमें उससे पहले ही..हे ब्राह्मण, यहां से चले जाओ..शेर किसी का जजमान नहीं हुआ है..वो तो हंस था जिसने मुझ शेर से भी पुण्य करवा दिया, दूसरा ब्राह्मण सारी बात समझ जाता है और डर के मारे तुरंत प्राण बचाकर अपने घर की ओर भाग जाता है…
कहने का मतलब है दोस्तों…ये कहानी आज के परिपेक्ष्य में भी सटीक बैठती है ,हंस और कौवा कोई और नहीं ,,,हमारे ही चरित्र है…कोई किसी का दु:ख देख दु:खी होता है और उसका भला सोचता है वो हंस है और जो किसी को दु:खी देखना चाहता है ,,,किसी का सुख जिसे सहन नहीं होता …वो कौवा है… जो आपस में मिलजुल, भाईचारे से रहना चाहते हैं , वे हंस प्रवृत्ति के हैं जो झगड़े कर एक दूजे को मारने लूटने की प्रवृत्ति रखते हैं वे कौवे की प्रवृति के है… कार्यालय में ,व्यवसाय में , समाज मे या किसी संगठन में हो जो किसी सहयोगी साथी की गलती या कमियों को बढ़ा चढ़ा के बताते हैं, उसको हानि पहुचाने के लिए उकसाते हैं…वे कौवे जैसे है..और जो किसी सहयोगी ,साथी की गलती, कमियों पर भी विशाल ह्रदय रख कर अनदेखी करते हुए क्षमा करने को कहते हैं ,वे हंस प्रवृत्ति के है..। अपने आस पास छुपे बैठे कौवौं को पहचानों, उनसे दूर रहो …और जो हंस प्रवृत्ति के हैं , उनका साथ करो.. इसी में आपका व हम सब का कल्याण छुपा है !

क्यों कोसता है खुद को

संतों की एक सभा चल रही थी किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संत जन जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था. उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है ? एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा. ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा सिर्फ मिट्टी का ढेर था किसी काम का नहीं था. कभी ऐसा नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है फिर एक दिन एक कुम्हार आया. उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर गधे पर लादकर अपने घर ले गया। वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया । बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के आग में झोंक दिया जलने को इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेजने के लिए लाया गया . वहां भी लोग मुझे ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं ? ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो. मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और ही थी, किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी उसकी की कृपा थी उसका मुझे वह गूंथना भी उसकी की कृपा थी मुझे आग में जलाना भी उसकी की मौज थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भी उसकी ही मौज थी… अब मालूम पड़ा कि मुझ पर सब उस परमात्मा की कृपा ही कृपा थी… दरअसल बुरी परिस्थितिया हमें इतनी विचलित कर देती हैं कि हम उस परमात्मा के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं और खुद को कोसने लगते हैं , क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती उसकी लीला समझने की… कई बार हमारे साथ भी ऐसा ही होता है हम खुद को कोसने के साथ परमात्मा पर ऊँगली उठा कर कहते हैं कि उसने ने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया, क्या मैं इतना बुरा हूँ ? और मलिक ने सारे दुःख तकलीफ़ें मुझे ही क्यों दिए । लेकिन सच तो ये है मालिक उन तमाम पत्थरों की भीड़ में से तराशने के लिए एक आप को चुना । अब तराशने में तो थोड़ी तकलीफ तो झेलनी ही पड़ती है।

मोहजीत राजा की कथा

एक बार एक राजकुमार अपने कई सैनिकों के साथ शिकार पर गया।वह बहुत अच्छा शिकारी था।शिकार के पीछे वह दूर निकाल गया कि सारे सिपाही पीछे छूट गये।अकेले पड़ने का एहसास होते वह रूक गया ।उसे प्यास भी लग रही थी।उसे पास में ही एक कुटिया दिखाई दी।वहाँ एक सन्त ध्यान – मग्न होकर बैठे थे।राजकुमार ने संत से कहा कि वह एक राजा का लड़का है जिसने मोह जीत लिया है।सन्त बोला – असंभव ।एक राजा और मोह पर विजयी ? यहाँ मैं एक संन्यासी हूँ तब भी मोह को जीत नहीं पा रहा हूँ और तुम कहते हो कि तुम्हारे पिता जी एक राजा हैं और मोह को जीत चुके है।राजकुमार ने कहा , न केवल मेरे पिता जी बल्कि सारी प्रजा ने भी मोह को जित रखा है।सन्त को इसका विश्वास नहीं हुआ तो राजकुमार ने कहा कि चाहें तो इस बात की परीक्षा ले लें।सन्त ने राजकुमार की कमीज़ माँगी और उसे कुछ और पहनने को दिया।सन्त ने तब एक जानवर को मार कर उसके खून में राजकुमार की कमीज को डुबाया और वह शहर में चिल्लाता हुआ गया कि राजकुमार को एक शेर ने मार दिया। शहर के लोग कहने लगे – अगर वह चला गया तो क्या हुआ।आप क्यों चिल्ला रहे हो ? वह उसका भाग्य था ।सन्त ने सोचा कि प्रजा नहीं चाहती होगी कि राजकुमार भविष्य में राजा बनें इसलिए इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही है। सन्त महल में गया और राजकुमार की मौत की बात उसके भाई और बहन को सुनाई।उन्होंने कहा कि अब तक वह हमारा भाई था , अब किसी और का भाई बन जायेगा ।कोई हमेशा के लिए साथ तो नहीं रह सकता इसलिए रोने और चिल्लाने की आवश्यकता नहीं है।सन्त को लगा कि बहन को दूसरा भाई अधिक पसंद है और भाई खुश है कि उसे अब राज्य मिलेगा इसलिए दोनों ने ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त की फिर वह पिता के पास गया और खबर सुनाई।पिता बोले, आत्मा तो अमर है और अविनाशी है इसलिए चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं है।वह मेरा पुत्र था इसलिए मैने सोचा कि वह राजा बनने वाला है लेकिन अब दूसरे पुत्र को राज्य मिलेगा ।मैं उसे वापस नहीं ला सकता हूँ इसलिए दुःख क्यों करूँ।सन्त सोच में पड़ गया। लेकिन अभी और भी लोग बाकी थे।राजकुमार की माता और पत्नी ।सन्त ने सोचा कि ये दो व्यक्ति तो जरूर व्याकुल होंगे।लेकिन वहाँ से भी वैसा ही उत्तर पाकर सन्त आश्चर्य में पड़ गया। उसे इस दृश्य पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वह सच देख रहा है।आखिर हारकर उसने अपने आने का उद्देश्य और राजकुमार के जिन्दा होने की बात सबको सुना दी।राजकुमार ने ही वापस आकर अपना राज्यभाग्य सँभाला और हर चीज पहले की तरह चलती रही।
अब इस कहानी का आध्यात्मिक भाव क्या हुआ ?
मोह पाँच विकारों में से एक है। मोह हमारी शान्ति को छीन लेता है।परखने की शक्ति को खत्म कर देता है। मोह सच्चाई को खतम करता है।जिसमें व्यक्ति मे मोह है उसमें बुद्धिमानी नहीं हो सकती। इस कथा से हमे शिक्षा मिलती हैं कि ना हमें दूसरों में मोह हो और ना ही दूसरों का हममें मोह हो। तब ही हम विश्व के मालिक बन सकते हैं। ओर केवल नही हम अपनी जिंदगी के भी मालिक बन सकते है करके देखिए, एक कोशिश तो बनती है।

किसी के प्रति कोई निर्णय लेने से पहले सौ बार सोचें

एक समय की बात है एक सन्त प्रात: काल भ्रमण हेतु समुद्र के तट पर पहुँचे समुद्र के तट पर उन्होने एक पुरुष को देखा जो एक स्त्री की गोद में सर रख कर सोया हुआ था! पास में शराब की खाली बोतल पड़ी हुई थी, सन्त बहुत दु:खी हुए। उन्होने विचार किया कि ये मनुष्य कितना तामसिक और विलासी है, जो प्रात:काल शराब सेवन करके स्त्री की गोद में सर रख कर प्रेमालाप कर रहा है। थोड़ी देर बाद समुद्र से बचाओ, बचाओ की आवाज आई,
सन्त ने देखा एक मनुष्य समुद्र में डूब रहा है, मगर स्वयं तैरना नहीं आने के कारण सन्त देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। स्त्री की गोद में सिर रख कर सोया हुआ व्यक्ति उठा और डूबने वाले को बचाने हेतु पानी में कूद गया थोड़ी देर में उसने डूबने वाले को बचा लिया और किनारे ले आया। सन्त विचार में पड़ गए की इस व्यक्ति को बुरा कहें या भला। वो उसके पास गए और बोले भाई तुम कौन हो, और यहाँ क्या कर रहे हो…?
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया : – मैं एक मछुआरा हूँ, मछली मारने का काम करता हूँ, आज कई दिनों बाद समुद्र से मछली पकड़ कर प्रात: जल्दी यहाँ लौटा हूँ। मेरी माँ मुझे लेने के लिए आई थी और साथ में (घर में कोई दूसरा बर्तन नहीं होने पर) इस मदिरा की बोतल में पानी ले आई। कई दिनों की यात्रा से मैं थका हुआ था। और भोर के सुहावने वातावरण में ये पानी पी कर थकान कम करने माँ की गोद में सिर रख कर ऐसे ही सो गया। सन्त की आँखों में आँसू आ गए कि मैं कैसा पातक मनुष्य हूँ, जो देखा उसके बारे में मैंने गलत विचार किया जबकि वास्तविकता अलग थी।
कोई भी बात जो हम देखते हैं, हमेशा जैसी दिखती है वैसी नहीं होती है, उसका एक दूसरा पहलू भी हो सकता है। किसी के प्रति कोई निर्णय लेने से पहले सौ बार सोचें और तब फैसला करें।

हमारा शरीर – इस जिंदगी का वाहन

मैं किसी आफिस काम के लिए फ्लाइट से बैंगलोर से मुम्बई जा रहा था। यह विमान का इकोनॉमी क्लास था। जैसे ही मैं प्लेन में चढ़ा, मैंने अपना हैंड बैग ओवरहेड केबिन में रख दिया और अपनी सीट पर बैठ गया। जब अपनी सीट बेल्ट लगा रहा था, तो मैंने एक सज्जन को देखा, जिनकी आयु शायद साठ-सत्तर साल के आस पास रही होगी। वह खिड़की की सीट पर मेरे बगल में ही बैठे थे। अगले दिन मुंबई में मेरा एक प्रेजेंटेशन था। इसलिए मैंने अपने कागजात निकाले और अंतिम तैयारी में उनको पढ़ने लगा। लगभग 15-20 मिनट के बाद, जब मैं अपना काम कर चुका था, मैंने दस्तावेजों को वापस बैग में सुरक्षित रूप से रख दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा। मैंने बड़ी लापरवाही भरी निगाह से अपने बगल में बैठे इस व्यक्ति के चेहरे की ओर देखा। अचानक मेरे दिमाग में आया कि इस आदमी को मैंने पहले कहीं देखा है। मैं याद करने की कोशिश में बार-बार उन्हें देख रहा था। वह वृद्ध थे और उनकी आँखों के नीचे और माथे पर झुर्रियाँ थीं। उनके चश्में साधारण फ्रेम वाले थे। उनका सूट एक साधारण गहरे भूरे रंग का था, जो बहुत प्रभावशाली नहीं लग रहा था। मैंने अपनी निगाहें उनके जूतों पर दौड़ाई। वे फॉर्मल जूतों की एक बहुत ही साधारण जोड़ी थी। वह अपने मेल का जवाब देने और अपने दस्तावेजों को देखने में व्यस्त लग रहे थे। अचानक, उनको देखते हुए मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा और मैंने बातचीत शुरू करते हुए पूछा, “क्या आप श्री नारायण मूर्ति हैं?” उन्होंने मेरी ओर देखा, और मुस्कुराकर उत्तर दिया, “हाँ, मैं हूँ।” मैं चौंक पड़ा और कुछ समय के लिए अवाक रह गया! मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि उनसे आगे बातचीत कैसे जारी रखी जाए? मैंने उन्हें फिर से देखा, लेकिन इस बार सबसे बड़े भारतीय अरबपति होने की दृष्टि से:- नारायण मूर्ति ! उनके जूते, सूट, टाई और चश्मा- सब कुछ बहुत ही साधारण था। और मजेदार तथ्य यह था कि इस व्यक्ति की सम्पति 2.3 बिलियन डॉलर थी और उन्होंने इंफोसिस की सह-स्थापना की थी। मेरी हमेशा से बहुत अमीर बनने की इच्छा थी ताकि मैं इस दुनिया की सारी विलासिता का उपभोग कर सकूँ और बिजनेस क्लास की यात्रा कर सकूँ। और मेरे बगल वाला यह आदमी, जो पूरी एयरलाइन खरीद सकता था, मेरे जैसे मध्यम वर्ग के लोगों के साथ इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर रहा था। मैं खुद को रोक नहीं पाया और पूछा, “आप इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर रहे हैं न कि बिजनेस क्लास में ?” “क्या बिजनेस क्लास के लोग जल्दी पहुँच जाते हैं?” उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। खैर, यह एक विचित्र प्रतिक्रिया थी और बहुत मायने भी रखती थी। और फिर, मैंने अपना परिचय दिया और बातचीत आगे बढ़ाई, “नमस्कार सर, मैं एक कॉर्पोरेट ट्रेनर हूँ और मैं पूरे भारत में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ काम करता हूँ।” उन्होंने अपना फोन दूर रखा और बहुत ध्यान से मेरी बात सुनने लगे। उस दो घंटे की यात्रा के दौरान हमने कई सवालों का आदान-प्रदान किया। हर सवाल के साथ बातचीत गहरी होती जा रही थी। और फिर एक ऐसा क्षण आया, जिसने इस उड़ान के अनुभव को और भी यादगार बना दिया। मैंने सवाल किया, “श्रीमान, आप इस दुनिया में इतने सारे लोगों के आदर्श हैं। आप अपने जीवन में महान निर्णय लेने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन, क्या आपको किसी बात का पछतावा है ?” यह सुनते ही उनका चेहरा कुछ उदास सा हो गया। उन्होंने कुछ देर सोचा और उत्तर दिया, “कभी-कभी, मेरे घुटने में दर्द होता है। मुझे लगता है कि मुझे अपने शरीर का बेहतर ख्याल रखना चाहिए था। जब मैं जवान था, मैं काम में इतना व्यस्त था कि मुझे अपने शरीर का अपना ख्याल रखने का समय नहीं मिला और अब आज जब मुझे काम करना है, तो मैं नहीं कर सकता। मेरा शरीर इसकी अनुमति नहीं देता।” “आप युवा, स्मार्ट और महत्वाकांक्षी हैं। मैंने जो गलती की है, उसे मत दोहराओ! अपने शरीर की उचित देखभाल करो और ठीक से आराम करो। यह एकमात्र शरीर ही है जो आपको ईश्वर की नेहमत के रूप में मिला है।” उस दिन मैंने दो चीज़ें सीखीं, एक जो उन्होंने मुझे बताई और दूसरी जो उन्होंने मुझे दिखाई। हम सभी भौतिक रूप से बेहतर करने की उम्मीद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं और इस आपाधापी में हमारा स्वास्थ्य उपेक्षित हो जाता है। हमारे शरीर की उपेक्षा करना मतलब हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों को नुकसान पहुचना। जीवन में कोई भी विलासिता हमारी मदद नहीं करती है ,जब हमारा शरीर पीड़ित होता है। वास्तव में, जब शरीर सहयोग करना बंद कर देता है, तो सब कुछ अपने आप रुक जाता है। यह एकमात्र शरीर ही है जो हमें इस जीवन यात्रा के वाहन के रूप में मिला है। बेहतर होगा कि हम इसे हल्के में न लें।

ब्रह्मज्ञान कहो या आत्मज्ञान

एक संत के पास बहरा आदमी सत्संग सुनने आता था, उसके कान तो थे पर वे नाडिय़ों से जुड़े नहीं थे, एकदम बहरा, एक शब्द भी नहीं सुन सकता था। किसी ने संत से कहा- ‘‘बाबा जी, वह जो वृद्ध बैठे हैं वह कथा सुनते- सुनते हंसते तो हैं पर हैं बहरे।’’ बाबा जी सोचने लगे- ‘‘बहरा होगा तो कथा सुनता नहीं होगा और कथा नहीं सुनता होगा तो रस नहीं आता होगा। रस नहीं आता होगा तो यहां बैठना भी नहीं चाहिए, उठ कर चले जाना चाहिए, यह जाता भी नहीं है।’’ बाबा जी ने इशारे से उस वृद्ध को अपने पास बुला लिया। सेवक से कागज-कलम मंगाया और लिख कर पूछा- ‘‘तुम सत्संग में क्यों आते हो?’’ उस वृद्ध ने लिख कर जवाब दिया- ‘‘बाबा जी, सुन तो नहीं सकता हूं लेकिन यह तो समझता हूं कि ईश्वर प्राप्त महापुरुष जब बोलते हैं तो पहले परमात्मा में डुबकी मारते हैं। संसारी आदमी बोलता है तो उसकी वाणी मन व बुद्धि को छूकर आती है लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत जब बोलते हैं तो उनकी वाणी आत्मा को छूकर आती है।मैं आपकी अमृतवाणी तो नहीं सुन पाता हूं पर उसके आंदोलन मेरे शरीर को स्पर्श करते हैं। दूसरी बात आपकी अमृतवाणी सुनने के लिए जो पुण्यात्मा लोग आते हैं उनके बीच बैठने का पुण्य भी मुझे प्राप्त होता है।’’ बाबा जी ने देखा कि यह तो ऊंची समझ के धनी हैं, उन्होंने कहा- ‘‘मैं यह जानना चाहता हूं कि आप रोज सत्संग में समय पर पहुंच जाते हैं और आगे बैठते हैं, ऐसा क्यों?’’ उस वृद्ध ने लिखकर जबाब दिया- ‘‘मैं परिवार में सबसे बड़ा हूं, बड़े जैसा करते हैं वैसा ही छोटे भी करते हैं। मैं सत्संग में आने लगा तो मेरा बड़ा लड़का भी इधर आने लगा शुरूआत में कभी-कभी मैं बहाना बनाकर उसे ले आता था। मैं उसे ले आया तो वह अपनी पत्नी को यहां ले आया, पत्नी बच्चों को ले आई, अब सारा कुटुम्ब सत्संग में आने लगा, कुटुम्ब को संस्कार मिल गए।’’ ब्रह्मचर्चा, आत्मज्ञान का सत्संग ऐसा है कि यह समझ में नहीं आए तो क्या, सुनाई नहीं देता हो तो भी इसमें शामिल होने मात्र से इतना पुण्य होता है कि व्यक्ति के जन्मों-जन्मों के पाप-ताप मिटने लगते हैं, पूरे परिवार का कल्याण होने लगता है। फिर जो व्यक्ति श्रद्धा एवं एकाग्रतापूर्वक सुनकर इसका मनन करे उसके परम कल्याण में संशय ही क्या….।।

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