25+ भक्ति भाव से भरी धार्मिक प्रेरक प्रसंग कहानियाँ | Best Devotional Inspirational Story In Hindi

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धार्मिक प्रेरक प्रसंग और कहानियां मानव जीवन के लिए बहुत ही जरुरी है ये हमें समय – समय से हमारे उदास और लाचार मन को हालातों से लड़ने का हौसला देते है धार्मिक प्रेरक कहानियां हमें नेकी और सत्य के रास्ते पर चले के लिए प्रेरित करते है इस पोस्ट में हमने बड़े प्रयास करके आपके लिए कुछ भगवान पर विश्वास की सत्य कहानी जिससे पढ़कर आपको कठिन से भी कठिन परिस्थिति में भी लगेगा की भगवान की कृपा से सब अच्छा ही होगा, भक्त भगवान की प्रेरणादायक कहानी और महाभारत के प्रेरक प्रसंग शामिल किए है उम्मीद है की आपको पसन्द आएंगे। x
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विष्णु भगवान ने पृथ्वी को किस समुद्र से निकाला था, जबकि समुद्र पृथ्वी पर ही है?

बचपन से मेरे मन मे भी ये सवाल था कि आखिर कैसे पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया जबकि समुद पृथ्वी पर ही है। हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था। फलस्वरूप भगवान बिष्णु ने सूकर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को पुनः उसके कच्छ में स्थापित कर दिया। इस बात को आज के युग में एक दंतकथा के रूप में लिया जाता था। लोगों का ऐसा मानना था कि ये सरासर गलत और मनगढंत कहानी है। लेकिन नासा के एक खोज के अनुसार खगोल विज्ञान की दो टीमों ने ब्रह्मांड में अब तक खोजे गए पानी के सबसे बड़े और सबसे दूर के जलाशय की खोज की है। उस जलाशय का पानी, हमारी पृथ्वी के समुद्र के 140 खरब गुना पानी के बराबर है। जो 12 बिलियन से अधिक प्रकाश-वर्ष दूर है। जाहिर सी बात है कि उस राक्षस ने पृथ्वी को इसी जलाशय में छुपाया होगा इसे आप “भवसागर” भी कह सकते हैं। क्योंकि हिन्दू शास्त्र में भवसागर का वर्णन किया गया है। जब मैंने ये खबर पढ़ा तो मेरा भी भ्रम दूर हो गया। और अंत मे मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगा की जो इस ब्रह्मांड का रचयिता है, जिसके मर्जी से ब्रह्मांड चलता है। उसकी शक्तियों की थाह लगाना एक तुच्छ मानव के वश की बात नही है। मानव तो अपनी आंखों से उनके विराट स्वरूप को भी नही देख सकता।
कुछ बेवकूफ जिन्हें ये लगता है कि हमारा देश और यहाँ की सभ्यता गवांर है। जिन्हें लगता है कि नासा ने कह दिया तो सही ही होगा। जिन्हें ये लगता है की भारत की सभ्यता भारत का धर्म और ज्ञान विज्ञान सबसे पीछे है। उनके लिये मैं बता दूं कि सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्मान भारत से ही शुरू हुआ है। अगर आपको इसपर भी सवाल करना है तो आप इतिहास खंगाल कर देखिये। जिन सभ्यताओं की मान कर आप अपने ही धर्म पर सवाल कर रहे हैं उनके देश मे जाकर देखिये। उनके भगवान तथा धर्म पर कोई सवाल नही करता बल्कि उन्होंने अपने धर्म का इतना प्रचार किया है कि मात्र 2000 साल में ही आज संसार मे सबसे ज्यादा ईसाई हैं। और आप जैसे बेवकूफों को धर्मपरिवर्तन कराते हैं। और आप बेवकूफ हैं जो खुद अपने ही देश और धर्म पर सवाल करते हैं। अगर उनकी तरह आपके भी पूर्वज बंदर थे तो आप का सवाल करना तथा ईश्वर पर तर्क करना सर्वदा उचित है। कौन होता है नासा जो हमे ये बताएगा कि आप सही हैं या गलत। हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है इसका अनुमान भी नही लगा सकता नासा। जब इंग्लैंड में पहला स्कूल खुला था तब भारत में लाखों गुरुकुल थे। और लाखों साल पहले 4 वेद और 18 पुराण लिखे जा चुके थे। जब भारत मे प्राचीन राजप्रथा चल रही थी तब ये लोग कपड़े पहनना भी नही जानते थे। तुलसीदास जी ने तब सूर्य के दूरी के बारे में लिख दिया था जब दुनिया को दूरी के बारे में ज्ञान ही नही था। खगोलशास्त्र के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट जो भारत के थे। उन्होंने दुनिया को इस बात से अवगत कराया कि ब्रह्मांड क्या है, पृथ्वी का आकार और व्यास कितना है। और आज अगर कुछ मूर्ख विदेशी संस्कृति के आगे भारत को झूठा समझ रहे हैं तो उनसे बड़ा मूर्ख और द्रोही कोई नही हो सकता। ये अपडेट करना आवश्यक हो गया था। जिनके मन मे ईश्वर के प्रति शंका है। 
जो वेद और पुराणों को बस एक मनोरंजन का पुस्तक मानते हैं। उनके लिए शास्त्र कहता है:-
भगवान विष्णु के प्रति प्रीति नहीं रखने वाला, अस्नेही या विरोधी। इसे ईश्‍वर विरोधी भी कहा गया है। ऐसे परमात्मा विरोधी व्यक्ति मृतक के समान है।
ऐसे अज्ञानी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं। जब परमतत्व है ही नहीं तो यह संसार स्वयं ही चलायमान है। हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। अविद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्‍वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्‍वर को नहीं मानते हैं। उन्होंने ईश्‍वर के नहीं होने के कई कुतर्क एकत्रित कर लिए हैं। दिन और रात का सही समय पर होना। सही समय पर सूर्य अस्त और उदय होना। पेड़ पौधे, अणु परमाणु तथा मनुष्य की मस्तिष्क की कार्यशैली का ठीक ढंग से चलना ये अनायास ही नही हो रहा है। जीव के अंदर चेतना कहाँ से आता है, हर प्राणी अपने जैसा ही बीज कैसे उत्पन्न करता है, शरीर की बनावट उसके जरूरत के अनुसार ही कैसे होता है? बिना किसी निराकार शक्ति के ये अपने आप होना असंभव है। और अगर अब भी ईश्वर और वेद पुराण के प्रति तर्क करना है तो उसके जीवन का कोई महत्व नही है।
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हनुमान जी की प्रेरक कहानी

हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है , प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था।
आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था।
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू”

हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है, प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ। भगवान बोले कैसे ? हनुमान जी बोले – वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है। आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया।
“जौ मोरे मन बच अरू काया, प्रीति राम पद कमल अमाया”
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला, जौ मो पर रघुपति अनुकूला
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा, कहि जय जयति कोसलाधीसा”

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा. मै नाम तो लेता हूँ पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता, बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते, बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, बेटे ने नहीं की तो क्या होगा? उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते , बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है। दूसरी बात प्रभु ! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ। मेरा दूसरा अभिमान टूट गया, इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ, फिर हनुमान जी कहते है –
और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है। आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया। भगवान बोले – हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये, इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है। भरत जी संत है और संत का बाण क्या है? संत का बाण है उसकी वाणी लेकिन हम करते क्या है, हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है। हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ?
परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है।
इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जगाते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है। आप उन पर भरोसा तो करो, तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे।
सियावर रामचंद्र की जय ,
जय जय हनुमान की जय !!

दर्शन और देखने में अन्तर

एक दिन एक मित्र ने दूसरे मित्र से कहा – “ चल मन्दिर चलते है ?” उसने कहा – “किसलिए ?” मित्र बोला – “दर्शन के लिए !” वो बोला – “क्यों ! कल ठीक से दर्शन नहीं किया था क्या ?”
मित्र – “ तू भी क्या इन्सान है ! दिन भर एक जगह बैठा रहता है ! पर थोड़ी देर भगवान के दर्शन करने के लिए नहीं जा सकता !” उसने कहा – “ महाशय ! चलने में मुझे कोई समस्या नहीं है।किन्तु आप यह मत कहिये कि दर्शन करने चलेगा क्या ?, यह कहिये कि देखने चलेगा क्या ? मित्र बोला – “ किन्तु दोनों का मतलब तो एक ही होता है !”
वह बोला– नहीं ! दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है ! मित्र – “कैसे ?”
कैसे ? यही प्रश्न सभी का प्रश्न होना चाहिए । अक्सर देखा है , लोग तीर्थ यात्रा पर जाते है किसलिए ? भव्य मन्दिर और मूर्तियों को देखने के लिए, ना कि दर्शन के लिए ! अब आप सोच रहे होंगे की देखने और दर्शन करने में क्या अन्तर है ? देखने का मतलब है, सामान्य देखना जो हम दिनभर कुछ ना कुछ देखते रहते है। किन्तु दर्शन का अर्थ होता है – जो हम देख रहे हैं , उसके पीछे छुपे तत्थ्य और सत्य को जानना । देखने से मनोरंजन हो सकता है, परिवर्तन नहीं । किन्तु दर्शन से मनोरंजन हो ना हो, परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अधिकांश लोग तीर्थ यात्रा का मतलब केवल जगह – जगह भ्रमण करना और मन्दिर और मूर्तियों को देखना ही समझते है। यह मनोरंजन है दर्शन नहीं।
दर्शन क्या है ? दर्शन वह है जो आपके जीवन को बदलने की प्रेरणा दे ! दर्शन वह है जो आपके जीवन का कायाकल्प कर दे ! दर्शन वह है जो आपके जीवन को परिवर्तित कर दे ! दर्शन वह है जो महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सच्चे शिव की खोज में लगाया और आर्यावर्त का कायाकल्प कर डाला ! अंग्रेजी में दर्शन का मतलब होता है – फिलॉसफी, जिसका अर्थ होता है – यथार्थ की परख का दृष्टिकोण ! इसी के लिए हमारे वैदिक साहित्य में षड्दर्शन की रचना की गई। जिनमे जीवन के सभी आवश्यक और यथार्थ से समझने की कोशिश करते है।

शिव के गले में मुण्ड माला का रहस्य

भगवान शिव और सती का अद्भुत प्रेम शास्त्रों में वर्णित है। इसका प्रमाण है सती के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह करना और सती के शव को उठाए क्रोधित शिव का तांडव करना। हालांकि यह भी शिव की लीला थी क्योंकि इस बहाने शिव 51 शक्ति पीठों की स्थापना करना चाहते थे। शिव ने सती को पहले ही बता दिया था कि उन्हें यह शरीर त्याग करना है। इसी समय उन्होंने सती को अपने गले में मौजूद मुंडों की माला का रहस्य भी बताया था।
मुण्ड माला का रहस्य :-
एक बार नारद जी के उकसाने पर सती भगवान शिव से जिद करने लगी कि आपके गले में जो मुंड की माला है उसका रहस्य क्या है। जब काफी समझाने पर भी सती न मानी तो भगवान शिव ने राज खोल ही दिया। शिव ने पार्वती से कहा कि इस मुंड की माला में जितने भी मुंड यानी सिर हैं वह सभी आपके हैं। सती इस बात का सुनकर हैरान रह गयी। सती ने भगवान शिव से पूछा, यह भला कैसे संभव है कि सभी मुंड मेरे हैं। इस पर शिव बोले यह आपका 108 वां जन्म है। इससे पहले आप 107 बार जन्म लेकर शरीर त्याग चुकी हैं और ये सभी मुंड उन पूर्व जन्मों की निशानी है। इस माला में अभी एक मुंड की कमी है इसके बाद यह माला पूर्ण हो जाएगी। शिव की इस बात को सुनकर सती ने शिव से कहा मैं बार-बार जन्म लेकर शरीर त्याग करती हूं लेकिन आप शरीर त्याग क्यों नहीं करते।
शिव हंसते हुए बोले श्मैं अमर कथा जानता हूं इसलिए मुझे शरीर का त्याग नहीं करना पड़ता।श् इस पर सती ने भी अमर कथा जानने की इच्छा प्रकट की। शिव जब सती को कथा सुनाने लगे तो उन्हें नींद आ गयी और वह कथा सुन नहीं पायी। इसलिए उन्हें दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग करना पड़ा। शिव ने सती के मुंड को भी माला में गूंथ लिया। इस प्रकार 108 मुंड की माला तैयार हो गयी। सती ने अगला जन्म पार्वती के रूप में हुआ। इस जन्म में पार्वती को अमरत्व प्राप्त होगा और फिर उन्हें शरीर त्याग नहीं करना पड़ा ! 

गुरु तेग बहादुर की सच्ची कहानी

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24 नवंबर 1675 की तारीख गवाह बनी थी, हिन्दू के हिन्दू बने रहने की !!
दोपहर का समय और जगह चाँदनी चौक दिल्ली लाल किले के सामने जब मुगलिया हुकूमत की क्रूरता देखने के लिए लोग इकट्ठे हुए पर बिल्कुल शांत बैठे थे ! लोगो का जमघट !!
और सबकी सांसे अटकी हुई थी ! शर्त के मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुर जी इस्लाम कबूल कर लेते हैं, तो फिर सब हिन्दुओं को मुस्लिम बनना होगा, बिना किसी जोर जबरदस्ती के ! औरंगजेब के लिए भी ये इज्जत का सवाल था
समस्त हिन्दू समाज की भी सांसे अटकी हुई थी क्या होगा? लेकिन गुरु जी अडिग बैठे रहे। किसी का धर्म खतरे में था धर्म का अस्तित्व खतरे में था तो दूसरी तरफ एक धर्म का सब कुछ दांव पे लगा था ! हाँ या ना पर सब कुछ निर्भर था। खुद चल के आया था औरगजेब, लालकिले से निकल कर सुनहरी मस्जिद के काजी के पास , उसी मस्जिद से कुरान की आयत पढ़ कर यातना देने का फतवा निकलता था ! वो मस्जिद आज भी है ! गुरुद्वारा शीष गंज, चांदनी चौक, दिल्ली के पास पुरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था ! आखिरकार जब इसलाम कबूलवाने की जिद्द पर इसलाम ना कबूलने का हौसला अडिग रहा तो जल्लाद की तलवार चली और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो गया। ये भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पुरे हिंदुस्तान का भविष्य बदलने से रोक दिया। हिंदुस्तान में हिन्दुओं के अस्तित्व में रहने का दिन !! सिर्फ एक हाँ होती तो यह देश हिन्दुस्तान नहीं होता ! गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की उनका अदम्य साहस भारतवर्ष कभी नही भूल सकता । कभी एकांत में बैठकर सोचिएगा अगर गुरु तेग बहादुर जी अपना बलिदान न देते तो हर मंदिर की जगह एक मस्जिद होती और घंटियों की जगह अज़ान सुनायी दे रही होती।

विश्वास

सबरी को आश्रम सौंपकर महर्षी मतंग जब देवलोक जाने लगे तब सबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी।
सबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी महर्षि सबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे! सबरी को समझाया “पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे यहां प्रतीक्षा करो!” अबोध सबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा! उसने फिर पूछा “कब आएंगे? महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे वे भूत भविष्य सब जानते थे वे ब्रह्मर्षि थे। महर्षि सबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए, सबरी को नमन किया आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए, ये उलट कैसे हुआ! गुरु यहां शिष्य को नमन करे! ये कैसे हुआ? महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका! महर्षि मतंग बोले “पुत्री अभी उनका जन्म नही हुआ!” अभी दसरथजी का लग्न भी नही हुआ! उनका कौशल्या से विवाह होगा! फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी फिर दसरथजी का विवाह सुमित्रा से होगा ! फिर प्रतीक्षा! फिर उनका विवाह कैकई से होगा फिर प्रतीक्षा! फिर वो जन्म लेंगे! फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा! फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे! तुम उन्हें कहना “आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये आपका अभिष्ट सिद्ध होगा! और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे!” सबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई! अबोध सबरी इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नही पाई! वह फिर अधीर होकर पूछने लगी “इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव!” महर्षि मतंग बोले ” वे ईश्वर हैं अवश्य ही आएंगे! यह भावी निश्चित हैं” लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं! लेकिन आएंगे अवश्य” जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे! इसलिए प्रतीक्षा करना ! वे कभी भी आ सकते हैं! तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे! शायद यही मेरे तप का फल हैं। सबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई,
उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी । वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता हैं वे कभी भी आ सकतें हैं  हर रोज रास्ते मे फूल बिछाती हर क्षण प्रतीक्षा करती! कभी भी आ सकतें हैं। हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा! सबरी बूढ़ी हो गई !! लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े… सबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया ! आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी।  गुरु का कथन सत्य हुआ! भगवान उसके घर आ गए! सबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नही खिलाया उन्ही राम ने सबरी का जूठा खाया। अद्भूत सुन्दर अति सुन्दर भाव विभोर कर देने वाला प्रसंग।

श्रीराम ने क्यों ली जल समाधि ?

अयोध्या आगमन के बाद राम ने कई वर्षों तक अयोध्या का राजपाट संभाला और इसके बाद गुरु वशिष्ठ व ब्रह्मा ने उनको संसार से मुक्त हो जाने का आदेश दिया। एक घटना के बाद उन्होंने सरयू नदी में जल समाधि ले ली थी। अश्विन पूर्णिमा के दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अयोध्या से सटे फैजाबाद शहर के सरयू किनारे जल समाधि लेकर महाप्रयाण किया। श्रीराम ने सभी की उपस्थिति में ब्रह्म मुहूर्त में सरयू नदी की ओर प्रयाण किया उनके पीछे थे उनके परिवार के सदस्य भरत,शत्रुघ्न,उर्मिला, मांडवी और श्रुतकीर्ति।  ॐ का उच्चारण करते हुए वे सरयू के जल में एक एक पग आगे बढ़ते गए और जल उनके हृदय और अधरों को छूता हुआ सिर के उपर चढ़ गया।

क्यों ली जल समाधि :-
यमराज यह जानते थे कि भगवान की इच्छा के बिना भगवान न तो स्वयं शरीर का त्याग करेंगे और न शेषनाग के अंशावतार लक्ष्मण जी। ऐसे में यमराज ने एक चाल चली। एक दिन यमराज किसी विषय पर बात करने भगवान राम के पास आ पहुंचे। भगवान राम ने जब यमराज से आने का कारण पूछा तो यमराज ने कहा कि आपसे कुछ जरूरी बातें करनी है। भगवान राम यमराज को अपने कक्ष में ले गए। यमराज ने कहा कि मैं चाहता हूं कि जब तक मेरी और आपकी बात हो उस बीच कोई इस कक्ष में नहीं आए। यमराज ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए क‌हा कि अगर कोई बीच में आ जाता है तो आप उसे मृत्युदंड देंगे। भगवान राम ने यमराज की बात मान ली और यह सोचकर कि लक्ष्मण उनके सबसे आज्ञाकारी हैं इसलिए उन्होंने लक्ष्मण जी को पहरे पर बैठा दिया।
यमराज और राम जी की बात जब चल रही थी उसी समय दुर्वासा ऋषि अयोध्या पहुंच गए और राम जी से तुरंत मिलने की इच्छा जताई। लक्ष्मण जी ने कहा कि भगवान राम अभी यमराज के साथ विशेष चर्चा कर रहे हैं।
भगवान की आज्ञा है कि जब तक उनकी बात समाप्त नहीं हो जाए कोई उनके कक्ष में नहीं आए। इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप कुछ समय प्रतीक्षा करें। ऋषि दुर्वासा लक्ष्मण जी की बातों से क्रोधित हो गए और कहा कि अभी जाकर राम से कहो कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं अन्यथा मैं पूरी अयोध्या को नष्ट होने का शाप दे दूंगा। लक्ष्मण जी ने सोचा कि उनके प्राणों से अधिक महत्व उनके राज्य और उसकी जनता का है इसलिए अपने प्राणों का मोह छोड़कर लक्ष्मण जी भगवान राम के कक्ष में चले गए। भगवान राम लक्ष्मण को सामने देखकर हैरान और परेशान हो गए। भगवान राम ने लक्ष्मण से पूछा कि यह जानते हुए भी कि इस समय कक्ष में प्रवेश करने वाले को मृत्युदंड
दिया जाएगा,तुम मेरे कक्ष में क्यों आए हो ? लक्ष्मण जी ने कहा कि दुर्वासा ऋषि आपसे अभी मिलना चाहते हैं। उनके हठ के कारण मुझे अभी कक्ष में आना पड़ा है। राम जी यमराज से अपनी बात पूरी करके जल्दी से ऋषि दुर्वासा से मिलने पहुंचे। यमराज अपनी चाल में सफल हो चुके थे। राम जी से यमराज ने कहा कि आप अपने वचन के अनुसार लक्ष्मण को मृत्युदंड दीजिये। भगवान राम अपने वचन से विवश थे। रामजी सोच में थे कि अपने प्राणों से प्रिय भाई को कैसे मृत्युदंड दिया जाए। राम जी ने अपने गुरू व वशिष्ठ जी से इस विषय में बात की तो गुरु ने बताया कि अपनों का त्‍याग मृत्युदंड के समान ही होता है। इसलिए आप लक्ष्मण को अपने से दूर कर दीजिये, यह उनके लिए मृत्युदंड के बराबर ही सजा होगी। जब राम जी ने लक्ष्मण को अपने से दूर जाने के लिए कहा तो लक्ष्मण जी ने कहा कि आपसे दूर जाकर तो मैं यूं भी मर जाऊंगा। इसलिए अब मेरे लिए उचित है कि मैं आपके वचन की लाज रखूं। लक्ष्मण जी भगवान राम को प्रणाम करके राजमहल से चल पड़े और सरयू नदी में जाकर जल समाधि ले ली।
इस तरह राम और लक्ष्मण दोनों ने अपने-अपने वचनों और कर्तव्य का पालन किया। इसल‌िए कहते- ‘रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाय पर वचन न जाई।

चयन का महत्व – महाभारत से जुड़ा प्रेरक प्रसंग कहानी

धर्मात्मा राजा प्रतापभानु ईश्वर को पाने के लिए जंगल- जंगल भटका! पर जंगल में विचरण करते- करते वह अपने लक्ष्य को ही भूल गया और ईश्वर (पूर्ण गुरु) के स्थान पर एक कपटी को भगवान का दर्ज़ा दे बैठा! भगवान की अपेक्षा कपटी मुनि के चयन में ही अपना हित समझता रहा। तुम्ह तजि दीन दयाला, निज हित न देखो कोउ!और इस गलत चुनाव का उसे क्या परिणाम मिला ? लक्ष्य भूल कर राक्षस का सहारा लिया, तो अगले जन्म में रावण रूप में राक्षस ही बनना पड़ा। दुर्योधन ने भी तो यही गलती की थी! जब श्री कृष्ण के बहुत बार समझाने पर भी दुर्योधन नहीं माना और महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया, तब श्री कृष्ण ने अर्जुन और उसके सामने चुनाव रखा था- ‘ एक ओर मै अकेला नि:शस्त्र खड़ा हूं और दूसरी ओर अस्त्र- शस्त्र से सुसज्जित मेरी चतुरंगिणी सेना हैं! कर लो, जिसका चुनाव करना चाहते हो!’ अर्जुन ने चुनाव किया, श्री कृष्ण का ! उधर दुर्योधन आकार का शिकार बन गया ! उसने अपने चुनाव की मोहर लगाई, चतुरंगिणी सेना पर। इस चुनाव का दुर्योधन को क्या परिणाम मिला- हम सभी जानते हैं! इसलिए चुनाव करते समय आकार का शिकार न बनें! क्वांटिटी के साथ- साथ क्वालिटी का भी ध्यान रखें । धनुर्धारी अर्जुन से अगर कोई बराबर की टक्कर लेने का जज़्बा व काबिलियत रखता था, तो वह था- अंगराज़ कर्ण ,
कर्ण के पास अर्जुन के वध के लिए एक अमोघ शक्ति थी! परंतु फ़िर भी कर्ण उससे अर्जुन का वध नहीं कर पाया! क्यों? क्योंकि जिस शक्ति का प्रयोग उसे अर्जुन के लिए करना था, दुर्योधन के दबाव में आकर उसने उस शक्ति द्वारा घटोत्कच का वध कर दिया । जहां नाखूनों का चयन करना था, वहां व्यर्थ ही दांतो का प्रयोग किया! कहने का तात्पर्य- जिस शक्ति से बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता था, सही चुनाव न होने के कारण वह यूं ही व्यर्थ चली गई! इसलिए कभी भी किसी के दबाव में आकर कोई चुनाव न करें। एक ओर जहां विभीषण के चुनाव ने उन्हें मान, सम्मान, प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य प्रदान किया, वहीं कैकेयी अपने चयन के कारण तिरस्कार व घृणा की पात्र बनी। यदि विभीषण चाहते, तो वे भी नेक तर्कों के वशीभूत होकर श्रीराम के स्थान पर रावण का चुनाव कर सकते थे! पर उन्होंने विवेक के आधार पर चयन किया। वहीं दूसरी ओर, मंथरा की कूट- नीति सुनकर कैकेयी क्या कहती हैं- तोहि सम हित न मोई संसारा!अर्थात् संसार में मेरा तुझसे बेहतर हितेषी और कोई नहीं है! कैकेयी विवेक खो बैठी और उन्होंने श्रीराम को छोड़कर मंथरा का चयन कर लिया। उस एक गलत चयन का परिणाम कैकेयी को युगों- युगों तक कलंकित कर गया। अपने पुत्र भरत का प्रेम तो खोया ही, स्वयं की नज़रों में भी सदा के लिए गिर गई इसलिए हमेशा याद रखें- चुनाव करते समय अपने निर्णय का आधार तर्क को नहीं, विवेक को बनाएं, इससे आपका चुनाव कभी भी पछतावे में परिणित नहीं होगा । जब एक इंसान पूर्ण गुरु के सान्निध्य में पहुंचता है, तब वह उस महान ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करता है, जिससे उसके भीतर विवेक जागृत होता हैं! वह अपनी आत्मा की आवाज़ को सुन पाता है! समझ पाता है कि दो पहलुओं में से कौन- सा सही है और कौन- सा गलत। लक्ष्य न भूले,विवेक का सानिध्य न छोड़े, आकार न देखे, दबाव में न आये और सही चुनाव कर अपने जीवन में सुख और उन्नति लाएं..!!

जानिये चरणामृत का महत्व

अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है। क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की. कि चरणामृतका क्या महत्व है? शास्त्रों में कहा गया है –
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

“अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप-व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है। जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता” जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है। जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया। वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है, ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की. जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी। जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है – “चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी ” धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए। ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं? दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है। कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।”

हवन में आहुति देते समय क्यों कहते है ‘स्वाहा’

अग्निदेव की दाहिकाशक्ति है 🔥 ‘स्वाहा’🔥 अग्निदेव में जो जलाने की तेजरूपा (दाहिका) शक्ति है, वह देवी स्वाहा का सूक्ष्मरूप है। हवन में आहुति में दिए गए पदार्थों का परिपाक (भस्म) कर देवी स्वाहा ही उसे देवताओं को आहार के रूप में पहुंचाती हैं, इसलिए इन्हें ‘परिपाककरी’ भी कहते हैं। सृष्टिकाल में परब्रह्म परमात्मा स्वयं ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ इन दो रूपों में प्रकट होते हैं। ये प्रकृतिदेवी ही मूलप्रकृति या पराम्बा कही जाती हैं। ये आदिशक्ति अनेक लीलारूप धारण करती हैं। इन्हीं के एक अंश से देवी स्वाहा का प्रादुर्भाव हुआ जो यज्ञभाग ग्रहणकर देवताओं का पोषण करती हैं। “स्वाहा” के बिना देवताओं को नहीं मिलता है भोजन सृष्टि के आरम्भ की बात है, उस समय ब्राह्मणलोग यज्ञ में देवताओं के लिए जो हवनीय सामग्री अर्पित करते थे, वह देवताओं तक नहीं पहुंच पाती थी। देवताओं को भोजन नहीं मिल पा रहा था इसलिए उन्होंने ब्रह्मलोक में जाकर अपने आहार के लिए ब्रह्माजी से प्रार्थना की। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया। भगवान के आदेश पर “ब्रह्माजी” देवी मूलप्रकृति की उपासना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर “देवी मूलप्रकृति” की कला से देवी ‘स्वाहा’ प्रकट हो गयीं और ब्रह्माजी से वर मांगने को कहा। ब्रह्माजी ने कहा-’आप अग्निदेव की दाहिकाशक्ति होने की कृपा करें। आपके बिना अग्नि आहुतियों को भस्म करने में असमर्थ हैं। आप अग्निदेव की गृहस्वामिनी बनकर लोक पर उपकार करें।’ ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त देवी स्वाहा उदास हो गयीं और बोलीं–’परब्रह्म श्रीकृष्ण के अलावा संसार में जो कुछ भी है, सब भ्रम है। तुम जगत की रक्षा करते हो, शंकर ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है। शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं। गणेश सभी देवताओं में अग्रपूज्य हैं। यह सब उन भगवान श्रीकृष्ण की उपासना का ही फल है।’ यह कहकर वे भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए तपस्या करने चली गयीं और वर्षों तक एक पैर पर खड़ी होकर उन्होंने तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए।
देवी स्वाहा के तप के अभिप्राय को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’तुम वाराहकल्प में मेरी प्रिया बनोगी और तुम्हारा नाम ‘नाग्नजिती’ होगा। राजा नग्नजित् तुम्हारे पिता होंगे। इस समय तुम दाहिकाशक्ति से सम्पन्न होकर अग्निदेव की पत्नी बनो और देवताओं को संतृप्त करो। मेरे वरदान से तुम मन्त्रों का अंग बनकर पूजा प्राप्त करोगी। जो मानव मन्त्र के अंत में तुम्हारे नाम का उच्चारण करके देवताओं के लिए हवन-पदार्थ अर्पण करेंगे, वह देवताओं को सहज ही उपलब्ध हो जाएगा।’ देवी स्वाहा बनी अग्निदेव की पत्नी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से अग्निदेव का देवी स्वाहा के साथ विवाह-संस्कार हुआ। शक्ति और शक्तिमान के रूप में दोनों प्रतिष्ठित होकर जगत के कल्याण में लग गए। तब से ऋषि, मुनि और ब्राह्मण मन्त्रों के साथ ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके अग्नि में आहुति देने लगे और वह हव्य पदार्थ देवताओं को आहार रूप में प्राप्त होने लगा। जो मनुष्य स्वाहायुक्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे मन्त्र पढ़ने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। स्वाहाहीन मन्त्र से किया हुआ हवन कोई फल नहीं देता है। देवी स्वाहा के सिद्धिदायक सोलह नाम हैं–
1. स्वाहा,
2. वह्निप्रिया,
3. वह्निजाया,
4. संतोषकारिणी,
5. शक्ति,
6. क्रिया,
7. कालदात्री,
8. परिपाककरी,
9. ध्रुवा,
10. गति,
11. नरदाहिका,
12. दहनक्षमा,
13. संसारसाररूपा,
14. घोरसंसारतारिणी,
15. देवजीवनरूपा,
16. देवपोषणकारिणी।

इन नामों के पाठ करने वाले मनुष्य का कोई भी शुभ कार्य अधूरा नहीं रहता। वह समस्त सिद्धियों व मनोकामनाओं को प्राप्त कर लेता हैं।

एनकाउंटर

“रुक जाओ पार्थ !” तुम श्रेष्ठ धनुर्धर हो तुम्हें ब्रह्मास्त्र तक का ज्ञान है फिर एक निःशस्त्र योद्धा पर अस्त्र चलाकर क्यों अपनी विद्या को लांक्षित करते हो याद रखो ये नीति विरुद्ध है।” अपनी मृत्यु को सन्निनिकट देख कर्ण ने अर्जुन से नीतिगत व्यवहार करने का अनुनय किया पार्थ सोच में पड़ गये । उनके हाथ जड़वत हो गये, गुरु कृपचार्य की सिखायी नीति के पाठ उन्हें स्मरण हो आये। परिणामस्वरूप उनके आह्वान पर प्रकट हुआ अंजुलिकास्त्र अंतर्ध्यान हो गया। अर्जुन की शिथिल अवस्था योगीश्वर श्री कृष्ण से छिपी न रह सकी। अर्जुन को समय जाया करते देख केशव की त्यौरियां चढ़ गयीं । क्रोधित कृष्ण अर्जुन को आदेशित करते हुये बोले। “ठिठक क्यों गये पार्थ। शरसंधान करो ।” पर माधव ! कर्ण अर्धरथी है और अभी रथ विहीन है। ऐसे में धर्म का आह्वान कर युद्ध करने वाला योद्धा एक निःशस्त्र पर अस्त्र कैसे चला दे । यह तो अनैतिक होगा न माधव । इससे कर्ण का वध तो हो जायेगा पर कर्ण के साथ न्याय कहाँ होगा ? ” शंकालु अर्जुन ने माधव से प्रतिप्रश्न किया। कर्ण के साथ न्याय पार्थ ??? किस कर्ण के साथ न्याय करना चाहते हो सखा ? उस कर्ण के साथ जिसने तुम्हारी माँ और भाइयों समेत तुम्हें वर्णावर्त में जिंदा जलाने के षड्यंत्र में सहायता की ? या उस कर्ण को जो स्वयंवर के बाद अपने सामर्थ्य के बल पर एक विवाहित अबला को अपह्रत करने के लिये तुमसे युद्ध करने के लिए सज्ज हो गया ? “क्या उस कर्ण के लिये न्याय जिसने कुरुवंश की कुलवधू अक्षत यौवना द्रौपदी को वेश्या कहा ?” या उस तथाकथित महारथी के लिये न्याय जिसने 17 वर्ष के बालक के वक्ष में खंजर घोंप दिया ?? ” योगीश्वर ने बोलना जारी रखा। श्रीमद्भागवत गीता के अप्रतिम ज्ञान को प्राप्त करने के बावजूद तुम नीति, अनीति और व्यवहारिकता के बीच का महीन अंतर नहीं जानते ? धर्म स्थापना के लिये उठाया गया हर कदम नीतिगत होता है पार्थ। तनिक सोचो यदि भगवान आशुतोष का प्रसाद ये विजय धनुष यदि पुनः कर्ण के हाथों में सुसज्जित हो गया तो न जाने कितने निर्दोषों का रक्त व्यर्थ इस कुरुक्षेत्र में बहेगा। हजारों हजार स्त्रियाँ विधवा होंगी और बच्चे अनाथ उन्हें किस तरह नीति से सम्बल प्रदान करोगे पार्थ ?” याद रखो एक अधर्मी को संकट काल के समय नीति का स्मरण हो ही जाता है और यही नीति की दुहाई देने वाले अपना समय आने पर अनीति की हर सीमा को लाँघ जाते हैं इसीलिये इनका वध करने हेतु शरसंधान के लिये किसी नीति का स्मरण रखना जरूरी नहीं । किन्तु माधव … ” अर्जुन ने पुनः तर्क करने की कोशिश की। कोई किन्तु कोई परन्तु नहीं ” अर्जुन की बात बीच में काट पंचम स्वर में केशव चीख उठे। “उठाओ गांडीव … करो शरसंधान और अभी के अभी अंजुलीकास्त्र का प्रयोग कर इस अधर्मी को इसके पापों की सजा दो पार्थ।” तुरन्त अर्जुन ने शरसंधान किया। गांडीव से अंजुलिकास्त्र का आह्वान हुआ। कर्णरंध्र तक प्रत्यंचा खिंची और सनसनाते हुये पार्थ के शरों ने कर्ण की ग्रीवा का रक्त चख लिया। अगले ही पल ‘अनीति’ ने ‘अधर्म’ का शिरोच्छेद कर दिया और धर्म स्थापना की नींव रख दी। शायद ! आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह सटीक लग रहा है जो समझ गए वह ठीक है बाकियों को भी समझना होगा।

प्रभु-इच्छा

एक महिला किराने की दुकान पर ख़रीदी करने के लिए गई साथ छोटा बच्चा भी था जब महिला ख़रीदी कर रही थी तब उसका बालक व्यापारी के सामने देखकर हंस रहा था। व्यापारी को बालक निर्दोष हंसमुख और ख़ूब ख़ूब प्यारा लग रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि इस बालक की हँसी उसके पूरे दिन की थकान उतार रही है व्यापारी ने उस नन्हें से बालक को अपने पास बुलाया बालक जैसे ही व्यापारी के पास आया उसने नौकर से चोकलेट का डिब्बा मँगवाया उसने डिब्बा खोल कर उसे बालक की ओर आगे किया ओर बोला- “बेटा तुझे जितनी चोकलेट चाहिए तू उतनी इस डिब्बे में से लेले।” बालक ने उसमें से चोकलेट लेने से मना कर दिया। व्यापारी बालक को बार-बार चोकलेट लेने को बोलता रहा और बालक ना करता रहा। बालक की माता दूर खड़ी यह पूरा घटनाक्रम देख रही थी। थोड़ी देर के बाद व्यापारी ने ख़ुद डिब्बे में हाथ डालकर मूठी भरकर चोकलेट बालक को दी बालक ने दोनो हाथ का खोबा बनाकर व्यापारी द्वारा दी गई चोकलेटों को ले लिया ओर व्यापारी का आभार मानते हुए वह उछलते कूदते माँ के पास गया। दुकान में से ख़रीदारी करने के बाद माँ ने बालक से पूछा- “बेटा तुझे वह अंकल चोकलेट लेने का बोल रहे थे तो भी तू चोकलेट क्यों नहीं ले रहा था?” लड़के ने ख़ुद के हाथ को आगे बढ़ाते हुए कहा-” देखो माँ! अगर मैंने मेरे हाथ से चोकलेट ली होती तो मेरा हाथ बहुत छोटा है, तो मेरे हाथ में बहुत कम चोकलेट आती परंतु अंकल का हाथ बड़ा था वो देते तो ढेर सारी चोकलेट आयी और मेरा पूरा खोबा भर गया।” हमारे हाथ से ऊपर वाले के हाथ बहुत बड़े हैं और उनका दिल भी बहुत बड़ा है। इसलिए उनसे माँगने के बजाय वो क्या देने वाले हैं वह उन पर छोड़ दीजिए।
शिक्षा:- हम अगर स्वयं कुछ भी लेने जाएँगे तो छोटी सी मुट्ठी भराएगी। परंतु जब ईश्वर के ऊपर छोड़ेंगे तो हमारा पूरा खोबा भर जाएगा इतना मिलेगा।

अठावन घड़ी कर्म की और दो घड़ी धर्म की

एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था। अपने व्यापार के सिलसिले में उसका बाहर आना-जाना लगा रहता था। एक बार वह परदेस से लौट रहा था। साथ में धन था, इसलिए तीन-चार पहरेदार भी साथ ले लिए। लेकिन जब वह अपने नगर के नजदीक पहुंचा, तो सोचा कि अब क्या डर। इन पहरेदारों को यदि घर ले जाऊंगा तो भोजन कराना पड़ेगा। अच्छा होगा, यहीं से विदा कर दूं। उसने पहरेदारों को वापस भेज दिया। दुर्भाग्य देखिए कि वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा कि अचानक डाकुओं ने उसे घेर लिया। डाकुओं को देखकर सेठ का कलेजा हाथ में आ गया। सोचने लगा, ऐसा अंदेशा होता तो पहरेदारों को क्यों छोड़ता? आज तो बिना मौत मरना पड़ेगा डाकू सेठ से उसका धन आदि छीनने लगे। तभी उन डाकुओं में से दो को सेठ ने पहचान लिया। वे दोनों कभी सेठ की दुकान पर काम कर चुके थे। उनका नाम लेकर सेठ बोला, अरे! तुम फलां-फलां हो क्या? अपना नाम सुन कर उन दोनों ने भी सेठ को ध्यानपूर्वक देखा। उन्होंने भी सेठ को पहचान लिया। उन्हें लगा, इनके यहां पहले नौकरी की थी, इनका नमक खाया है। इनको लूटना ठीक नहीं है। उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा, भाई इन्हें मत लूटो, ये हमारे पुराने सेठ जी हैं। यह सुनकर डाकुओं ने सेठ को लूटना बंद कर दिया। दोनों डाकुओं ने कहा, सेठ जी, अब आप आराम से घर जाइए, आप पर कोई हाथ नहीं डालेगा। सेठ सुरक्षित घर पहुंच गया। लेकिन मन ही मन सोचने लगा, दो लोगों की पहचान से साठ डाकुओं का खतरा टल गया। धन भी बच गया, जान भी बच गई। इस रात और दिन में भी साठ घड़ी होती हैं, अगर दो घड़ी भी अच्छे काम किए जाएं, तो अठावन घड़ियों का दुष्प्रभाव दूर हो सकता है। इसलिए अठावन घड़ी कर्म की और दो घड़ी धर्म की !

एक सच्ची घटना जो आपके दिल को विश्वास से भर देगी

एक लड़की थी जिसका “श्री गुरु नानक साहिब जी पर अटुट विश्वास था वह सुबह तीन उठ जाती स्नान आदि से निर्वत हो कर नितनेम पाठ करती, रोज गुरुद्वारा साहिब जाती श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश भी करती, सहज पाठ करती, उसको बहुत सारी गुरबानी कंठस्थ थी,वह घर में काम करते समय भी गुरबानी की कोई ना कोई तुक हमेशा उसके मुंह मेे होती वो सिर पर हमेशा चुन्नी लगा कर रखती। फिर उसकी शादी हो गई, ससुराल घर जा कर भी उसने अपना नितनेम नहीं छोड़ा रोज गुरुद्वारा साहिब जाना,सेवा करनी, प्रकाश करना, उसके ससुराल वाले किसी और दुनियावी बाबा को मानते थे,उनको बहू का इस तरह गुरु घर जाना बिल्कुल पसन्द नही था, वो सब उसको दुनियावी बाबा को मानने को कहते पर उस लड़की ने साफ मना कर दिया और कहा मेरे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी पुरन समरथ है मुझे किसी और के आगे सिर झुकाने की जरुरत नहीं, पर उसके ससुराल वाले कोई ना कोई बहाना ढूँढते कि किस तरह इसको नीचा दिखायें एक दिन उसके ससुराल वालों ने कहा कि अगर तेरे गुरु ग्रंथ साहिब पुरन समरथ हैं तो इस महीने की 31 तारीख तक वो आप चल कर के हमारे घर आएं अगर वो आ गए तो तुझे कभी भी गुरू घर जाने से नहीं रोकेगे और अगर नहीं आए तो तुम कभी भी गुरु घर नहीं जाएगी़ पर उस लड़की को तो पुर्ण रुप से विश्वास था उसने कहा मुझे मंजुर है उसने रोज सुबह गुरुद्वारा साहिब जाना अरदास करनी और कभी कभी रो भी पड़ना और एक ही बात कहनी कि सच्चे पातशाह जी मुझे आप पर पूरा विश्वास है
दिन निकलते गए, आखिर 30 तारीख आ गयी उस रात लड़की बहुत रोई की अगर सुबह गुरु जी घर ना आए तो मेरा विश्वास टूट जाएगा, उस रात 3 बजे के बाद बहुत बरसात हुई उस सुबह लड़की गुरुद्वारा साहब नही जा सकी जब सुबह हुई तो उसी गाँव के गुरुद्वारा साहब के ग्रंथी साहब ने देखा कि गुरुद्वारा साहब कि कच्ची छत से पानी लीक हो रहा है उन्होंने ने सोचा कि कहीं कुछ गलत ना हो जाए तो गाँव के कुछ समझदार लोगों को बुला के हालात बताए सब ने यह सलाह की कि जब तक बरसात नहीं रुकती और छत ठीक नहीं होती तब तक गुरु साहिब जी का पावन सरुप का किसी के घर में प्रकाश कर देना चाहिए ताकि बेअदबी ना हो तब ग्रंथी जी ने कहा रोज यहाँ एक लड़की आती है जो कभी कभी प्रकाश भी करती है और सेवा भी बहुत करती है, हम लोग गुरु साहिब जी का सरुप उसके घर ले जाते हैं सब लोग इस बात पर सहमत हो गए एक बुजुर्ग कहने लगा कि एक बंदा उसके घर भेज कर इजाजत ले लो ग्रंथी साहब ने कहा इजाज़त क्या लेनी वो मना थोड़ा करेगी तब ग्रंथी साहब और गाँव के कुछ लोग गुरु साहिब जी के पावन सरुप को बेहद आदर सत्कार से लेकर उस लड़की के घर की तरफ चल पड़े, लड़की के ससुराल सब इस बात पर खुश हो रहे थे कि आज 31 तारीख़ है अगर गुरु ना आए तो कल से इसका गुरुद्वारे जाना बंद तभी दरवाजे पर दस्तक हुई जब ससुर ने दरवाजा खोला तो सामने “श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी” वो तो दंग रह गया, ग्रंथी जी ने कहा जल्दी से कोई भी एक कमरा खाली करके उसकी अच्छी तरह से साफ सफाई करो गुरु साहिब जी का प्रकाश करना है, उस लड़की ने बहुत चाव से कमरा साफ किया उसकी श्रद्धा विश्वास देख सारे परिवार ने उस लड़की से माफी मांगी लड़की का विश्वास रंग लाया बात सारी विश्वास की है, भगत धन्ना जाट ने भी विश्वास के साथ पत्थर में से परमात्मा पा लिया था, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी आज भी पूर्ण रूप से समरथ हैं कमी गुरु साहिब में नहीं हम में है, हमे गुरु साहिब में विश्वास नहीं है हम कोई भी काम अपनी बुद्धि को आगे रखते हैं और गुरु के हुक्म को पीछे तभी तो बाद में दुखी होते हैं भक्ति सारी विश्वास पर खड़ी है इसलिए गुरु पर विश्वास बनाओ कुछ भी असंभव नहीं है बस कभी भी शक ना करो कि मेरा गुरु यह कर सकता है? नीयत साफ रखो, विश्वास रखो कि हाँ मेरे गुरु सब कुछ कर सकते हैं विश्वास मतलब के लिए मत रखना दिल से प्रेम करना ।

प्रभु की कृपा 

एक बार भगवान राम और लक्ष्मण एक सरोवर में स्नान के लिए उतरे। उतरते समय उन्होंने अपने-अपने धनुष बाहर तट पर गाड़ दिए जब वे स्नान करके बाहर निकले तो लक्ष्मण ने देखा की उनकी धनुष की नोक पर रक्त लगा हुआ था! उन्होंने भगवान राम से कहा -” भ्राता ! लगता है कि अनजाने में कोई हिंसा हो गई ।” दोनों ने मिट्टी हटाकर देखा तो पता चला कि वहां एक मेढ़क मरणासन्न पड़ा है। भगवान राम ने करुणावश मेंढक से कहा- “तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? कुछ हलचल, छटपटाहट तो करनी थी। हम लोग तुम्हें बचा लेते जब सांप पकड़ता है तब तुम खूब आवाज लगाते हो। धनुष लगा तो क्यों नहीं बोले ?
मेंढक बोला – प्रभु! जब सांप पकड़ता है तब मैं ‘राम- राम’ चिल्लाता हूं एक आशा और विश्वास रहता है, प्रभु अवश्य पुकार सुनेंगे। पर आज देखा कि साक्षात भगवान श्री राम स्वयं धनुष लगा रहे है तो किसे पुकारता? आपके सिवा किसी का नाम याद नहीं आया बस इसे अपना सौभाग्य मानकर चुपचाप सहता रहा।”
कहानी का सार- सच्चे भक्त जीवन के हर क्षण को भगवान का आशीर्वाद मानकर उसे स्वीकार करते हैं सुख और दुःख प्रभु की ही कृपा और कोप का परिणाम ही तो हैं ।

जीवन का सच

बनारस में एक सड़क के किनारे एक बूढ़ा भिखारी बैठता था। वह उसकी निश्चित जगह थी। आने जाने वाले पैसे या खाने पीने को कुछ दे देते। इसी से उसका जीवन चल रहा था। उसके शरीर में कई घाव हो गए थे। जिनसे उसे बड़ा कष्ट था। एक युवक रोज उधर से आते जाते समय उस भिखारी को देखता। एक दिन वह भिखारी के पास आकर बोला, “बाबा! इतनी कष्टप्रद अवस्था में भी आप जीने की आशा रख रहे हैं। जबकि आपको ईश्वर से मुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिए।” भिखरी ने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर से रोज यही प्रार्थना करता हूँ। लेकिन वह मेरी प्रार्थना सुनता नहीं है। शायद वह मेरे माध्यम से लोगों को यह संदेश देना चाहता है कि किसी का भी हाल मेरे जैसा हो सकता है। मैं भी पहले तुम लोगों की तरह ही था। अहंकारवश अपने किये कर्मों के कारण मैं यह कष्ट भोग रहा हूँ। इसलिए मेरे उदाहरण के द्वारा वह सबको एक सीख दे रहा है। ” युवक ने बूढ़े भिखारी को प्रणाम किया और कहा,” आज आपने मुझे जीवन की सच्ची सीख दी दी। जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा।”

पाप का गुरु कौन ?

एक समय की बात है। एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे। पूरे गांव में शोहरत हुई कि काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं। शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया- पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?  प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए, उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था। पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है। वह फिर काशी लौटे। अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई। उसने पंडित जी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी। गणिका बोली- पंडित जी ! इसका उत्तर है तो बहुत सरल है, लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा। पंडित जी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे। वह तुरंत तैयार हो गए। गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। अपने नियम-आचार और धर्म परंपरा के कट्टर अनुयायी थे। गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे। एक दिन गणिका बोली- पंडित जी ! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं। पंडित जी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी। स्वर्ण मुद्रा का नाम सुनकर पंडित जी विचारने लगे। पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी ! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं। पंडित जी ने अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए। उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा, बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे। पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है ? गणिका ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है। यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।

शिक्षा:-
हमें किसी भी तरह के लोभ-लालच को जीवन में अपनाएं बिना जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए।

चंचल मन – प्रेरक विचार

बात बड़ी है अटपटी,झटपट लखे न कोय ज्यों मन की खटपट मिटे,तो चटपट दर्शन होय मन कि खटपट यह” कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को पाना तो चाहता है,परन्तु उसको जानना बिलकुल भी नहीं चाहता परमात्मा एक व्यक्ति के रूप में आपके पास आये और आपके गले लग जाये या आपको गले लगा ले,क्या ऐसा होना संभव है ? इस संसार में असंभव कुछ भी नहीं है जो इस संसार का सूत्रधार है वह कहीं न कहीं तो होगा ही और अगर ऐसा है तो फिर उसको प्राप्त करना हो भी सकता है गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरे भक्त के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है आवश्यकता है,एक प्रेमी भक्त बनने की,ज्ञानी भक्त बनने की संसार की प्रत्येक भौतिक वस्तु आपको प्राप्त हो सकती है-अपनी मेहनत से,अपनी चालबाजी से,चोरी से ,छीनाझपटी से ,असत्य बोलकर,लालच देकर,किसी को धोखा देकर आदि आदि विभिन्न प्रकार के प्रयासों से परन्तु आप परमात्मा को इनमे से किसी भी तरीके से प्राप्त नहीं कर सकते अगर इन तरीकों से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता तो ऐसे सभी प्रयास तो कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले दुर्योधन ने आजमाए ही थे फिर भी कृष्ण को अपने वश में नहीं कर सका था फिर परमात्मा में ऐसा क्या है कि उनको उपरोक्त वर्णित सब प्रयासों से भी जाल में फंसाया नहीं जा सकता ? इसके लिए परमात्मा की प्रकृति को जानना आवश्यक है जब शिशु इस संसार में आता है तब वह परमात्मा स्वरुप ही होता है उसकी प्रकृति और परमात्मा की प्रकृति में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है इसी कारण से हमें शिशु की हरकतें मोहक लगती है उसका मन इतना निर्मल होता है कि हमें उसी में परमात्म-दर्शन होते हैं ज्यों ज्यों शिशु बड़ा होता है ,सांसारिक गतिविधियां उस पर हावी होती जाती है,और वह अपने बाल-सुलभ स्वभाव से दूर होता चला जाता है यही विकृति उसे परमात्मा से दूर करती चली जाती है निर्मल मन प्रेम का अथाह भंडार होता है इसी कारण से शिशु सबको प्रिय होता है और शिशु को भी सभी प्रिय लगते हैं तभी तो शिशु का संसार से अपना पहला संबंध मुस्कान के साथ ही स्थापित करता है हमारी भाषा में इसे सामाजिक मुस्कान (Social smile)कहा जाता है शिशु इस अवस्था में न तो यह जानता है कि दिल से उसको कौन प्रेम करता है और कौन उसके पास वैमनस्य भाव से आया है वह तो सबका स्वागत अपनी प्यारी सी मुस्कान से करता है इससे अधिक प्रेम परिपूर्णता का दूसरा उदहारण इस भौतिक संसार में हो ही नहीं सकता एकदम यही स्वभाव ,यही प्रकृति परमात्मा की होती है परमात्मा भी सबको समान दृष्टि से देखता है हाँ,यह बात जरूर है कि उसे प्रेम से पूर्ण व्यक्ति सबसे प्रिय होते हैं|और प्रेम से परिपूर्ण होने वाले व्यक्ति ही परमात्मा के मित्र हो सकते हैं अर्जुन इसी कारण से कृष्ण को मित्र रूप में पा सके थे प्रेम से परिपूर्ण होने के लिए आपको सिर्फ इतना ही करना होगा कि बालसुलभ स्वभाव बनाये रखें ,मन में किसीभी प्रकार की सांसारिक विकृति को प्रवेश न करने दें| जब आपका मन निर्मल हो जायेगा ,संसार में सभी समान नज़र आने लगेंगे तब आप सबमे परमात्मा के ही दर्शन करेंगे आपमें उपस्थित प्रेम ही परमात्मा है ,इसके लिए आपको कहीं भी प्रेम पाने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा,कही भी परमात्मा को ढूँढने नहीं जाना होगा स्वामी रामसुख दास जी कहा करते थे- बात बड़ी है अटपटी,झटपट लखे न कोय ज्यों मन की खटपट मिटे,तो चटपट दर्शन होय मन कि खटपट यह” , ईर्ष्या,वैमनस्य,लालच,आकांक्षाये,कामनाये आदि विकार ही है ज्यों ही ये सब मन से बाहर कर दिए जायेंगे फिर जो शेष बचेगा वह है-प्रेम और प्रेम ही परमात्मा है गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं- ” हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होइ मैं जाना ” श्रीराधे भक्तों

भगवान शिव पार्वती विवाह प्रसंग

जब 18 पंडितों ने पूछ लिया गोत्र, ओर भोले बाबा नहीं दे सके जवाब ! भगवान #शंकर और #पार्वती जी के विवाह का प्रसंग बहुत मंगलकारी है। जो इस कथा को सुनता है, उसके मनोरथ पूर्ण होते हैं। शिव पुराण में इसकी अति महत्ता बताई गई है। भगवान शंकर बारात के साथ हिमाचल के यहां जाते हैं। हिमाचल उनकी आवभगत करते हैं। बारात तो विलक्षण थी। ऐसी बारात न किसी ने देखी और न देखेंगे। मदमस्त शिव के गण। कोई मुखहीन। कोई विपुल मुख। भस्म लगाए हुए शंकरजी। शंकर जी दूल्हा थे। लेकिन सांसारिक नहीं। वह अविनाशी और प्रलंयकर के रूप में थे। सब कहने लगे, दूल्हा भी कभी ऐसा होता है क्या। गले में सर्पहार। शरीर पर भस्म लपेटे हुए। उनको क्या पता था कि वह दूल्हे के नहीं बल्कि साक्षात शंकर जी के दर्शन कर रहे हैं। तीन दिन तक बारात ने वहां प्रवास किया। अब तो बारात कुछ घंटों की होती है, लेकिन शास्त्रीय परंपरा के अनुसार तब बारात कई दिन ठहरती थी। सारे मंगल कार्य विधि विधान से होते थे। पार्वती जी के साथ सखियां हंसी-ठिठोली कर रही हैं। सखियां मंगलगान कर रही हैं। सब लोग शंकर जी की जय-जयकार कर रहे हैं। फिर आया फेरों का वक्त। शंकर जी और गौरी फेरों के लिए बैठे। पंडितों ने शंकर जी से कहा कि अब आप संकल्प कीजिए। महासंकल्प लेने वाले शंकर जी आज स्वयं संकल्प कर रहे हैं। जिनके संकल्प मात्र से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं। आज उनको पंडित कह रहे हैं कि आप संकल्प कीजिए। शंकर जी संकल्प को उद्यत हुए, तभी पंडितों ने उनसे पूछाआपका गोत्र क्या है? शंकरजी हैरान। कैसे बताएं कि क्या है गोत्र। कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। सृष्टि के जन्म, पालन और संहार में लगे रहे। शंकर जी का त्रिलोक ही गोत्र है। शंकर जी ने ब्रह्मा जी और विष्णु को देखा। दोनों ने शंकर जी को देखा और हंसने लगे। पंडित जी समझ गए कि उनसे भूल हो गई। पंडित जी ने फेरे कराए और वहीं पर जयमाल की रस्म हुई। ( जयमाला कराने का शास्त्रीय विधान फेरों के बाद का है)।पंडित जी ने बारी-बारी से वचन कराए। शंकर और पार्वती जी ने पति धर्म और पत्नी धर्म का पालन करने के लिए वचन भरे। इस प्रकार भगवान शंकर का विवाह पार्वती जी के साथ संपन्न हुआ। बारात जब भी विदा की अनुमति मांगती, हिमाचल रोक देते। अभी थोड़ा रुको नअभी थोड़ा रुको न। तीन दिन बाद बारात की तरफ से शंकर जी ने अनुमति मांगी तो हिमाचल ने और रोक लिया। हिमाचल बारात को नहीं रोक रहे थे, इसके पीछे उनका पिता मोह था। वह अपनी लाडली पार्वती को विदा करने का साहस नहीं कर पा रहे थे। करते भी कैसे। पिता का मोह होता ही ऐसा है। बाबुल के घर से विदाई के वक्त बहुत भावुक होते हैं ।
मेना ने पार्वती जी को समझाया पत्नी धर्म
अंतत: वह विदाई की बेला आई। पार्वती जी बारी-बारी से पिता और परिजनों से गले मिली। सबकी आंखें नम थीं। हिमाचल का तो रो-रोकर बुरा हाल था। मां मेना भी अपने को संभाल नहीं पा रही थीं। वह पार्वती जी को पकड़कर अलग ले गईं। इस विदाई की बेला में घर-संसार के लिए शिक्षाप्रद सीख निकली। मेना ने पार्वती जी को पति धर्म और ससुराल धर्म की शिक्षा दी। मेना ने कहा कि आज से तुम्हारा ससुराल ही घर है। कभी अपने पति की अवहेलना न करना। सदा मिलकर चलना। घर में सभी बंधु बांधव का सम्मान करना। अब तुम्हारा यही संसार है। मेना ने कहा कि स्त्री के लिए पति के समान कोई नहीं है। यद्यपि माता-पिता अपनी संतान के बड़े शुभचिंतक होते हैं, लेकिन वह मुक्ति नहीं दे सकते। इस संसार में चार वस्तु सुख प्रदान करती हैं- पहला पति, दूसरा धर्म, तीसरी स्त्री और चौथा संतोष। इन चारों का ही पालन करना। स्त्री से दो कुलों की रक्षा होती है। पिता के कुल की तो वह रक्षा करती ही है, पति के कुल की भी रक्षा करती है। इसलिए, तुम दोनों कुलों की रक्षा करना । हमारा मान-सम्मान तुम्हारे हाथ में है। इस तरह, हिमाचल और मेना ने पार्वती जी को विदा किया ।
शंकर जी की सीख – विवाह आनंदोत्सव है। इसलिए, वह सारी रस्में शंकर जी के विवाह में हुईं जो आज होती हैं।
-विवाह के वक्त बुरा नहीं मानना चाहिए। हंसी ठिठोली को उसी रूप में लेना चाहिए। शंकर जी के विवाह में भी यही हुआ।
-संसार का दूल्हा खूब श्रृगांर करता है, लेकिन जगत का दूल्हा ( शंकर) भस्म लगाए जाता है। यही शाश्वत है। सत्य है।
-घर और परिवार की जिम्मेदारी स्त्री की होती है। इसलिए मेना उनको समझाती है कि घर कैसे चलाना है।
-यदि मां अपनी कन्या को शिक्षा दे तो इससे दोनों कुलों के मान सम्मान की रक्षा होती है। पार्वती जी को मेना माँ ने यही सीख दी।

आज का प्रेरक अमृत विचार

कोई तन दुखी, कोई मन दुखी।
कोई धन बिन रहत उदास।
थोड़े थोड़े सब दुखी, सुखी सन्त का दास।
संतोषी सदा सुखी।

एक बार किसी महाराज ने किसी दूसरे राजा पर चढ़ाई में विजय प्राप्त कर ली। उस चढ़ाई में उस राजा के कुटुम्ब के सभी लोग मारे गये। अंत में महाराज ने सोचा कि अब वह राज्य नहीं लेगा और राज्य में जो कोई बचा हो उसको यही राज्य सौंप देंगे। ऐसा विचार कर महाराज अपने वंशज की तलाश करने के लिए निकला। एक आदमी जो घर-गृहस्थ छोड़कर जंगल में रहता था, वही बच गया था। महाराज उस पुरुष के पास गये और। बोले, “जो कुछ चाहते हो वह ले लो।” महाराज ने यह सोचकर बोला कि वो राज्य माँग ले क्योंकि उससे बढ़कर और क्या माँगेगा। इसलिए कहा, “जो इच्छा है वो ले लो।” वह पुरुष बोला, “मैं जो कुछ चाहता हूँ वो आप देंगे ?” महाराज बोले, “हाँ-हाँ दे दूँगा।” वह पुरुष बोला, “महाराज! हमें ऐसा सुख दो कि जिसके बाद फिर कभी दुःख नहीं आये ।” विचारने वाली बात है यहाँ कि संसार में ऐसा कौनसा सुख है जिसके बाद फिर कभी दुःख की प्राप्ति न हो ? सुख तो ज्ञान स्वभाव में रहने में ही है क्योंकि यदि ज्ञान में रहेंगे और ज्ञान से ही जानेंगे तो बाहरी वस्तुओ की इच्छा स्वतः ही समाप्त हो ज्एगी और सुख अपने आप प्राप्त हो जाएगा। वास्तव में संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है जिसके बाद दुःख न आता हो। फिर महाराज ने हाथ जोड़कर कहा कि, “क्षमा करो। मैं इस चीज को तो नहीं दे सकता। दूसरी और कोई चीज माँगिये।” वह पुरुष बोला, “फिर हमको ऐसा जीवन दो कि हमारा मरण कभी न हो।” जीवन-मरण तो शरीर से संयोग-वियोग होने का नाम है। आत्मा का जीवन-मरण कभी भी नहीं होता है। आत्मा तो अमर तत्व है महाराज ने फिर हाथ जोड़कर कहा कि, “मैं यह भी नहीं दे सकता । आप कुछ और माँग लीजिए।” वह पुरुष बोला, “अच्छा कुछ और नहीं तो हमको ऐसी जवानी दो कि जिसके बाद कभी बुढ़ापा नहीं आये।” अंत में महाराज हार मानकर और हाथ जोड़कर वहाँ से चल दिये । और अंत में उसे समझ आया कि यह संसार से कुछ नहीं चाहता है। यह अपनी आत्मा में ही खुश है। जो अपनी आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है उसे बाहर में कहीं भी सुख नहीं दिखता है और जो बाहर में सुख देखता है उसे अपनी आत्मा भी नहीं दिखाई देती है।

एक अनोखी राम कथा

लेकिन सारगर्भित है?
एक बार एक राजा ने गाव में रामकथा करवाई और कहा की सभी ब्राह्मणो को रामकथा के लिए आमत्रित किया जय , राजा ने सबको रामकथा पढने के लिए यथा स्थान बिठा दिया | एक ब्राह्मण अंगुठा छाप था उसको पढना लिखना कुछ आता नही था , वो ब्राह्मण सबसे पीछे बैठ गया , और सोचा की जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पलट दूंगा। काफी देर देखा की पास बैठा व्यक्ति पन्ना नही पलट रहा है, उतने में राजा श्रद्धा पूर्वक सबको नमन करते चक्कर लगाते लगाते उस सज्जन के समीप आने लगे, तो उस ने एक ही रट लगादी की “अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा ” अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा उस सज्जन की ये बात सुनकर पास में बैठा व्यक्ति भी रट लगाने लग गया,की “तेरी गति सो मेरी गति तेरी गति सो मेरी गति ,” उतने में तीसरा व्यक्ति बोला,ये पोल कब तक चलेगी !ये पोल कब तक चलेगी ! चोथा बोला- जबतक चलता है चलने दे ,जब तक चलता है चलने दे,वे चारो अपने सिर निचे किये इस तरह की रट लगाये बैठे है की-
1. अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा
2. तेरी गति सो मेरी गति
3. ये पोल कब तक चलेगी
4. जबतक चलता है चलने दे

जब राजा ने उन चारो के स्वर सुने , राजा ने पूछा की ये सब क्या गा रहे है, ऐसे प्रसंग तो रामायण में हम ने पहले कभी नही सुना । उतने में, एक महात्मा उठे और बोले महाराज ये सब रामायण का ही प्रसंग बता रहे है ,पहला व्यक्ति है ये बहुत विद्वान है ये , बात सुंमत ने (अयोध्याकाण्ड ) में कही, राम लक्ष्मण सीता जी को वन में छोड़ , घर लोटते है तब ये बात सुंमत कहता है की अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ? अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ? फिर पूछा की ये दूसरा कहता है की तेरी गति सो मेरी गति , महात्मा बोले महाराज ये तो इनसे भी ज्यादा विद्वान है ,( किष्किन्धाकाण्ड ) में जब हनुमान जी, राम लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधे पर बिठा कर सुग्रीव के पास गए तब ये बात राम जी ने कही थी की , सुग्रीव ! तेरी गति सो मेरी गति , तेरी पत्नी को बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का रावण ने हरण कर लिया राजा ने आदर से फिर पूछा,की महात्मा जी!ये तीसरा बोल रहा है की ये पोल कब तक चलेगी , ये बात कभी किसी संत ने नही कही ?बोले महाराज ये तो और भी ज्ञानी है ।,( लंकाकाण्ड ) में अंगद जी ने रावण की भरी सभा में अपना पैर जमाया , तब ये प्रसंग मेधनाथ ने अपने पिता रावन से किया की, पिता श्री ! ये पोल कब तक चलेगी , पहले एक वानर आया और वो हमारी लंका जला कर चला गया , और अब ये कहता है की मेरे पैर को कोई यहाँ से हटा दे तो भगवान श्री राम बिना युद्ध किये वापिस लौट जायेंगे। फिर राजा बोले की ये चौथा बोल रहा है ? वो बोले महाराज ये इतना बड़ा विद्वान है की कोई इनकी बराबरी कर ही नही सकता ,ये मंदोदरी की बात कर रहे है , मंदोदरी ने कई बार रावण से कहा की,स्वामी ! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सोप दीजिये अन्यथा अनर्थ हो जायगा।तब ये बात रावण ने मंदोदरी से कही की जबतक चलता है चलने दे मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू है ,अगर में राम के हाथो मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी , इस अधम शरीर से भजन -वजन तो कुछ होता नही , और में युद्द जीत गया तो त्रिलोकी में भी मेरी जय जय कार हो जाएगी। राजा इन सब बातो से चकित रह गए बोले की आज हमे ऐसा अद्भुत प्रसंग सूनने को मिला की आज तक हमने नही सुना , राजा इतने प्रसन्न हुए की उस महात्मा से बोले की आप कहे वो दान देने को राजी हूँ । उस महात्मा ने उन अनपढ़ अंगुटा छाप ब्राह्मण् को अनेको दान दक्षिणा दिलवा दी ।
यहाँ विशेष ध्यान दे-
इन सब बातो का एक ही सार है की कोई अज्ञानी,कोई नास्तिक, कोई कैसा भी क्यों न हो,रामायण , भागवत ,जैसे महान ग्रंथो को श्रद्धा पूर्वक छूने मात्र से ही सब संकटो से मुक्त हो जाते है । और भगवान का सच्चा प्रेमी हो जाये उन की तो बात ही क्या है,मत पूछिये की वे कितने धनी हो जाते है!!
जय श्री राम, जय श्री राधे कृष्णा

खूबसूरती की हमेशा तारीफ़ – प्रेरक कहानी

एक आदमी ने एक बहुत ही खूबसूरत लड़की से शादी की। शादी के बाद दोनो की ज़िन्दगी बहुत प्यार से गुजर रही थी। वह उसे बहुत चाहता था और उसकी खूबसूरती की हमेशा तारीफ़ किया करता था। लेकिन कुछ महीनों के बाद लड़की चर्मरोग (skin Disease) से ग्रसित हो गई और धीरे-धीरे उसकी खूबसूरती जाने लगी। खुद को इस तरह देख उसके मन में डर समाने लगा कि यदि वह बदसूरत हो गई, तो उसका पति उससे नफ़रत करने लगेगा और वह उसकी नफ़रत बर्दाशत नहीं कर पाएगी। इस बीच एकदिन पति को किसी काम से शहर से बाहर जाना पड़ा। काम ख़त्म कर जब वह घर वापस लौट रहा था, उसका Accident हो गया। Accident में उसने अपनी दोनो आँखें खो दी। लेकिन इसके बावजूद भी उन दोनो की जिंदगी सामान्य तरीके से आगे बढ़ती रही। समय गुजरता रहा और अपने चर्मरोग के कारण लड़की ने अपनी खूबसूरती पूरी तरह गंवा दी। वह बदसूरत हो गई, लेकिन अंधे पति को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। इसलिए इसका उनके खुशहाल विवाहित जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह उसे उसी तरह प्यार करता रहा। एकदिन उस लड़की की मौत हो गई। पति अब अकेला हो गया था। वह बहुत दु:खी था वह उस शहर को छोड़कर जाना चाहता था। उसने अंतिम संस्कार की सारी क्रियाविधि पूर्ण की और शहर छोड़कर जाने लगा तभी एक आदमी ने पीछे से उसे पुकारा और पास आकर कहा, “अब तुम बिना सहारे के अकेले कैसे चल पाओगे? इतने साल तो तुम्हारी पत्नितुम्हारी मदद किया करती थी, पति ने जवाब दिया, “दोस्त! मैं अंधा नहीं हूँ। मैं बस अंधा होने का नाटक कर रहा था। क्योंकि यदि मेरी पत्नि को पता चल जाता कि मैं उसकी बदसूरती देख सकता हूँ, तो यह उसे उसके रोग से ज्यादा दर्द देता। इसलिए मैंने इतने साल अंधे होने का दिखावा किया वह बहुत अच्छी पत्नि थी मैं बस उसे खुश रखना चाहता था सीख खुश रहने के लिए हमें भी एक दूसरे की कमियो के प्रति आखे बंद कर लेनी चाहिए और उन कमियो को नजरन्दाज कर देना चाहिए।

मानव योनि को मुक्ति योनि कहा है

चौरासी लाख योनियों में कर्मफल के कारण भटकने के बाद मेरे प्रभु ने कृपा करके हमें “मुक्ति योनि” यानी मानव योनि में जन्म दिया है । यह प्रभु की असीम कृपा होती है क्योंकि इस मानव जीवन का उपयोग हम सदैव के लिए मुक्त होने के लिए कर सकते हैं । मानव जीवन में बुद्धि की जागृति होने के कारण हम मानव जीवन के सही उद्देश्य को समझ सकते हैं । एक पशु योनि का आकलन करें, चाहे वो जलचर हो, नभचर हो या थलचर हो, तो हम पाएंगे कि उस जीव का जीवन भोजन तलाशने में, दूसरे बड़े जीव से अपने प्राणों की रक्षा करने में ही बीत जाता है । एक कौआ को या एक गिलहरी को प्रत्‍यक्ष देखें तो पाएंगे कि प्रातः ही वे भोजन तलाशने निकल पड़ते हैं । दिन भर उन्हें अपने प्राणों की रक्षा के लिए चौकन्ना रहना पड़ता है कि कहीं कोई उनके प्राणों पर घात न करे । एक कौआ या एक गिलहरी भोजन का एक ग्रास ग्रहण करने से पहले कितनी बार इधर-उधर देखते हैं अपनी आत्मरक्षा हेतु । छोटे जीव को बड़े जीव से खतरा रहता है । बड़े जीव को मनुष्य से खतरा रहता है। मनुष्य जीवन निश्चित ही प्रभु कृपा का फल होता है क्योंकि चौरासी लाख योनियों केv👉 चक्रव्यूह से सदैव के लिए मुक्त होने का यह अदभुत मौका होता है । इस मानवरूपी जन्म का प्रभु सानिध्य में रहकर सर्वोत्तम उपयोग करके हम सदैव के लिए आवागमन से,चौरासी लाख योनियों के कालचक्र से मुक्त हो सकते हैं । इसलिए ही इस मानव योनि को संतों ने “मुक्ति योनि” कहा है ।

रावणकी नाभिमें अमृत कैसे आया ?

आपने रामायण में यह भी सुना होगा कि
रावण को अमरता का वरदान था । रावण की नाभि में अमृत आरोपित किया गया था । जिसके कारण रावण अमर हो गया था । उसे मारना कोई साधारण बात नहीं थी । लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि रावण की नाभि में इस अमृत को स्थापित कैसे किया गया । आज हम इसी के बारे में बात करेंगे । एक समय की बात है बाली ओर रावणके बीच युद्ध हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप इस युद्ध में महाराज लंकेश को शरीर के अंदरूनी चोट लगी । जिससे कि लंकापति रावण बहुत ज्यादा बीमार पड़ गया था । इसी बात को लेकर मंदोदरी बहुत ज्यादा चिंतित हो गई और उसने मन ही मन में यह निर्णय लिया कि मैं महाराज रावण को अमर बना कर ही रहूंगी । मंदोदरी ने अपने पति को अमर बनाने के लिए अपने माता-पिता की सहायता ली । मंदोदरी अपने माता-पिता के पास पहुंची और उन्होंने अपनी सारी आपबीती बताई । इससे उसके माता-पिता ने हां कर दी । लेकिन समस्या यह थी कि मंदोदरी के पास उड़कर के जाने की शक्ति नहीं थी । इसलिए मंदोदरी की मां के पास यह सकती थी । उसके बाद में मंदोदरी की मां ने सारी शक्तियां मंदोदरीको दे दी थी । क्योंकि मंदोदरी की मां एक देवी स्त्री थी । मंदोदरी की मां से मंदोदरी ने शक्तियां प्राप्त करके वह चंद्रलोक चली गई । चन्द्रलोक में जा करके उन्होंने चंद्र देव के सामने अपने पति यानी कि लंकापति रावण की दीर्घायु के लिए पूजा का बहाना बनाने का ड्रामा रचा । चन्द्र देव तथा वहां के देवता इस बात को समझ नहीं पाए कि मंदोदरी की चाल क्या है । मंदोदरी यहां क्यों आई है ? वैसे तो साधारण व्यक्ति इस अमृत कलश के कुंड को नहीं चुरा सकता । क्योंकि मंदोदरी के पिता द्वारा उसे स्वर्ग लोक में स्थापित किया गया था । वह भी बहुत ही चमत्कारिक तथा विद्युत शक्तियों के द्वारा इस कलश को स्थापित किया गया था ।
जिससे कि कोई भी व्यक्ति इस नहीं ले जा सकता । यदि कोई व्यक्ति आकाश मार्ग से उड़कर भी आता है तो इसके नीचे से बहुत सारी विषैली गैसें निकलती है जिससे किसकी मृत्यु हो जाती है और यदि कोई व्यक्ति इसके पास चलकर जाए तो भी उसकी मृत्यु निश्चित होती है । क्योंकि इनके चारों ओर गर्म लावा निकलता रहता है । इसलिए सामान्य मनुष्य के लिए इस अमृत कलश को चुराना कोई साधारण बात नहीं थी । चंद्रलोक का एक नियम है कि चन्द्र देव सालमें एज बार अश्विन मासकी पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) के दिन इस अमृत कलश को वहां से निकालते हैं तथा धरती वासियों के कल्याण के लिए कुछ बूंदे धरती पर गिराते हैं ।अब मंदोदरी के सामने यह अच्छा मौका था । क्योंकि जिस दिन मंदोदरी गई थी उसके दो दिन बाद ही पूर्णिमा थी । इसलिए मंदोदरी को अमृत कलश चुराने का अच्छा मौका मिल गया । जैसे ही पूर्णिमा की रात्रि को चंद्र देव ने अमृत कलश वहां से बाहर निकाला तभी रावण की पत्नी मंदोदरी ने मौका पाकर के अमृत कलश को चुराकर के भागने लगी । जिसके कारण देवताओं को इसका पता चल गया और देवताओं ने मंदोदरी का पीछा किया । पीछा करने पर मंदोदरी बहुत ज्यादा ही घबरा गई और उसने अमृत कलश को देवलोक में एक खिड़कीमें अमृत कलशको छोड़ दिया तथा उसमें से अमृतकी कुछ बूंदेको अपनी अंगुठी में भर कर के उसके ऊपर ग्रहका नँग लगा दिया और अपने साथ लेकर आ गई ।
मंदोदरी अमृत लेकर धरती लोक पर पहुंच गई थी । उसके बाद उसने रावण को अमर करने के लिए अपने देवर विभीषण का सहारा लिया। वह एकमात्र लंका में ऐसे व्यक्ति थे जो कि धर्म , पूजा पाठ तथा सकारात्मक प्रकृति के विचारधारा वाले व्यक्ति थे । मंदोदरी ने यह सारी घटना विभीषण को बताई । पहले तो विभीषणने उसका विरोध किया मगर मन्दोदरीक़े बहुत समजानेके बाद वह तैयार हो गया। लेकिन विभीषण ने एक सशर्त रखी कि इस बात का पता हमारे दोनों के अलावा और किसी को नहीं होना चाहिए । इस बात से रावण की पत्नी मंदोदरी भी सहमत हो गई और उन्होंने शरद पूर्णिमा के दिन ही इस अमृत की बूंद को रावणकी नाभिमे अमृत स्थापित करने का निर्णय लिया । पूर्णिमा की रात्रि को मंदोदरी तथा विभीषण ने रावण को अशोक वाटिका में बुलाकर के मदिरा के साथ कुछ जड़ी बूटियां पिलाकर के रावण को बेहोश या अचेत किया गया । रावण की अचेत होने के बाद कमल नाल पद्धत्ति द्वारा विभीषण ने उस अमृत की बूंदों को रावण की नाभि में स्थापित कर दिया । जिसके कारण रावण अमर हो गया। अब रावण का सिर भी कट जाता है तो भी वह जिंदा रहेगा । मेडिकल लाइनमें नाडिका संपूर्ण ज्ञान जिसको होता है उसको वैस्क्युलर सर्जन बोलते है। पूरे विश्वमें विभीषण उस समयका एक मात्र वैस्क्युलर सर्जन था। इस प्रकार रावणकी नाभिमें अमृत स्थापीत किया गया। अमृत रावणकी नाभिमे स्थापित क्यो किया क्योंकि जो अमृत की बूंदे मंदोदरी रावण के लिए लेकर आई थी वह पर्याप्त नहीं थी । हमारे शरीर में समस्त नाड़ियों का केंद्र नाभि में होता है । इसलिए यदि नाभि में अमृत को पहुंचा दिया जाए तो यह हमारे शरीर के हर नाडी में पहुंच जाता है । इसीलिए विभीषण ने नाभि को ही चुना । इससे रावण अमर ही गया था।

बाकी की रामायण तो आप जानते ही होंगे। कि किस प्रकार हमारे श्री राम ने लंकापति रावण का वध किया और समाज का कल्याण किया।।

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1 thought on “25+ भक्ति भाव से भरी धार्मिक प्रेरक प्रसंग कहानियाँ | Best Devotional Inspirational Story In Hindi”

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