महापुरुषों की शिक्षाप्रद कहानियां
भगवान बुद्ध की एक प्रेरक कहानी
भगवान बुद्ध की एक भिक्षुणी शिष्या थी । उसका नाम था पटाचारा । त्रिपिटक ग्रंथ में उसकी कथा आती है । पटाचारा कुँआरी थी । किसी युवान से उसका मन लग गया । माँ-बाप के न चाहने पर भी उसने उसके साथ शादी कर ली । श्रावस्ती नगरी से बहुत दूर देश में वह अपने पति के साथ रहने लगी ।
★ कालचक्र घुमता गया । वह दो बच्चों की माता हुई । काफी वर्ष गुजरने पर पटाचारा के मन में हुआ कि कुछ भी हो, आखिर माँ-बाप बूढे हो गये होंगे, अब मैं अपने परिवार के जनों से मिलूँ । उन माँ-बाप को रिझा लूँ… मना लूँ ।
★ पटाचारा अपने पति और दो बेटों के साथ चली श्रावस्ती नगरी की ओर । आज से २५०० साल पहले की बात है । गाडी मोटरों की सुविधा न थी । लोग पैदल चलते थे । यात्रा करते करते ये लोग घने जंगल से गुजर रहे थे । रात्रि में पति ने शयन किया और साँप ने उसे काटा । पति मर गया । पटाचारा के सिर परमानो एक दुःख का पहाड गिर पड़ा ।
★ इतना ही नहीं, रात्रि को तो पति की मृत्यु देख रही है और प्रभात में पुत्र को किसी हिंसक प्राणी ने झपट लिया । वह मौत के घाट उतर गया । अब वह एकलौते बेटे को देख कर मुश्किल से संभल रही है । प्यास के मारे दूसरा बेटा पानी खोजने गया । वह झाड़ियों में उलझ गया और खप गया ।
★ अब अकेली नारी पटाचारा अपने को जैसे तैसे संभालती हुई, रास्ता काटती हुई, कंकडों पत्थरों पर पैर जमाती हुई, दिल को थामती हुई, मनको समझाती हुई मां_बाप के दीदार के लिए भागी जा रही है । वह अबला श्रावस्ती नगरी में पहुँचती है तो खबर सुनती है कि जोरों की आँधी चली उसमें उसका मकान गिर गया और बूढे माँ-बाप उसके नीचे दबकर मर गये । पटाचारा के पैरों तले से मानो धरती खिसक रही है । है तो बडी दुःखद घटना मगर ईश्वर न जाने इस दुःख के पीछे कितना सुख देना चाहता है यह पटाचारा को पता न था ।
★ संसार का मोह छुडाकर शाश्वत की ओर ले जानेवाली ईश्वर-कृपा न जाने किस व्यक्ति को किस ढंग की व्यवस्था करके उसे उन्नत करना चाहती है ।
पटाचारा के मन में हुआ कि ‘आखिर यह क्या ? जिस पति के लिये माँ-बाप छोडे उस पतिको साँप ने डँस मारा, वह चल बसा । बेटों को सम्भाला, पाला-पोसा, बडे होंगे तो सुख देंगे यह अरमान किये । एक बेटे को हिंसक पशु उठाकर ले गया । दूसरा बेटा गायब हो गया । इतना सब दुःख सहते सहते माँ-बाप के लिए आयी, वहाँ के झोंके ने मकान गिरा दिया और वे माँ-बाप दब मरे । क्या यही है जीवन ? क्या यही है हमारे मानव जन्म की उपलब्धि ? पटाचारा की अशांति और मीमांसा दोनों शुरू हुई । वह बुद्ध के पास पहुँची । पटाचारा से बुद्ध ने कहा : ‘‘पटाचारा ! जो कुछ होता है, जीव की उन्नति के लिए, विकास के लिए होता है । तेरे दो पुत्र इस जन्म में तेरे पुत्र थे परंतु न जाने कितनी बार और कितनों के पुत्र हुये और अभी न जाने वे किसकी कोख में होंगे तुझे क्या पता ? तेरा पति इस जन्म में तेरा पति था परंतु करोडों बार न जाने कितनों का पति बना होगा ? पटाचारा ! तू इस जन्म में इस माँ-बाप की बेटी थी, परंतु अगले जन्म के तेरे कौन माँ-बाप हुये होंगे ? कितने माँ-बाप बदल गये होंगे यह तुझे पता नहीं । शायद वह पता दिलाने के लिए परमात्मा ने यह व्यवस्था की हो ।
★ जगत की नश्वरता समझाते हुये बुद्ध ने पटाचारा को उपदेश दिया । पटाचारा ऐसी भिक्षुणी बनी कि उसने एक बार महिलाओं के बीच प्रवचन किया और उसी एक प्रवचन से प्रभावित होकर पाँच सौ महिलायें साध्वी हो गयीं । कहाँ तो जीवन की इतनी भीषण दुःखद अवस्था और कहाँ बुद्ध का मिलना और वह ऐसी भिक्षुणी हो गयी कि पाँच सौ महिलायें एक साथ भिक्षुणी बन पडी । अभी सत्संग में उसकी चर्चा होती है ।
★ हम समीक्षा करेंगे तो पता चलेगा कि हर दुःख के पीछे कोई नया सुख छिपा है और सुख के पीछे दुःख छिपा है । हम इतने अनजान हैं कि दुःख के भय से दुःखी होते रहते हैं और सुख में लेपायमान होते रहते हैं । सुख और दुःख की अगर ठीक से समीक्षा करेंगे तो ये सुख और दुःख दोनों हमें जगाने का काम करेंगे ।
कालिदास का अहंकार – आज की प्रेरक कहानी
कहते है कि एक बार कालिदास को बहुत अहंकार हो गया कि मेरे पास सभी प्रश्नों के उत्तर है।
वह एक गाँव से गुजर रहे थे, उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने द्वार पर खड़े होकर आवाज लगाईं “माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा” !
स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. पहले अपना परिचय दो।
कालिदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली :- “तुम पथिक कैसे हो सकते हो” ? , पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं ! हमेशा चलते रहते हैं। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।
कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ,
स्त्री बोली :- “तुम मेहमान कैसे हो सकते हो” ? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन ! इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?
कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं।
स्त्री ने कहा :- “नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है” ! वह बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं।
तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?
कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।
स्त्री बोली :- “फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख(नाख़ून) और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें कौन हैं आप” ?
अब कालिदास पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे।परंतु उन्होंने हार नहीं मानी।
कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।
स्त्री ने कहा :- “नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो।
मूर्ख दो ही हैं। पहला वह राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा जिसको यह भी याद नहीं कि एक दिन मेरी मृत्यु निश्चित है परंतु फिर भी पाप कर्म करता है !
(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और बोले तुम जीते मैं हारा)
वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)
माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा !!
कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और तभी कालिदास का स्वपन टूट गया और वह इधर उधर देखने लगे।
इस कहानी से सीख:- अहंकार तो राजाओं का भी नहीं रहा।जहाँ मैं है वहीँ अहंकार का जन्म होता है।अपना बुरा वक्त इंसान को नहीं भूलना चाहिए नहीं तो प्रभु की मार में आवाज नहीं होती।
कार्य के प्रति निष्ठा
राजस्थान के प्रसिद्ध जैन साहित्यकार थे-टोडरमल। उत्कृष्ट लेखन क धनी इन साहित्यकार में अपने काम के प्रति अदभुत लगन थी। वे जिस भी विषय पर लिखना तय कर लेते थे, उसे एक बार हाथ में लेने पर पूरा करके ही छोड़ते थे। एक समय वे अपने ग्रंथ ‘मोक्षमार्ग’ पर काम कर रहे थे। यह टोडरमल का लिखा विख्यात ग्रंथ है और आज भी बहुसंख्यक लोगों के लिए मार्गदर्शक बना हुआ है।
जब टोडरमल के मस्तिष्क में मोक्षमार्ग लिखने का विचार आया तो उसके लिए उन्होंने अनेक लोगों से सामग्री जुटानी आरंभ की। टोडरमल अपने काम में इतने डूब गए कि उन्हें रात और दिन का होश ही न रहा और न खाने-पीने की सुध रही। घर के लोग उनका ध्यान रखते और वे अपना ग्रंथ लिखते रहते।
एक दिन टोडरमल अपनी मां से बोले, “मां! आज सब्जी में नमक नहीं है। लगता है आप नमक डालना भूल गईं।”
उनकी बात सुनकर मां मुस्कराते हुए बोली, “बेटा! लगता है आज तुमने अपना ग्रंथ पूरा कर लिया है?”
मां की बात सुनकर टोडरमल चौंके और हैरानी से बोले, “हां मां! मैंने अपना ग्रंथ पूरा कर लिया है, किंतु आपको इस बात का कैसे पता चला?”
मां ने जवाब दिया, “नमक तो मैं तुम्हारे भोजन में पिछले छह महीने से नहीं डाल रही थी, किंतु उसका अभाव तुम्हें आज पहली बार महसूस हुआ है। इसी से मैंने जाना। जब तक तुम्हारे मस्तिष्क में पुस्तक की विषय-सामग्री थी तब तक नमक जैसी वस्तुओं के लिए स्थान नहीं था। अब जब वह जगह खाली हो गई तो इंद्रियों के रसों ने उसे भरना शुरू कर दिया।”
दरअसल, कार्य के प्रति लगन और निष्ठा हो तो कार्य थोड़े समय में और उत्कृष्टता के साथ पूरा होता है। इसलिए जब भी कोई कार्य हाथ में लें तो उसे पूरी लग्न के साथ करें।
अपना सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है ।
जरूरतमंद की सेवा सबसे बड़ी
एक वैद्य गुरु गोविंद सिंह के दर्शन हेतु आनन्दपुर गया। वहां गुरुजी से मिलने पर उन्होंने कहा कि जाओ और जरूरतमंदों को सेवा करो। वापस आकर वह रोगियों की सेवा में जुट गया। शीघ्र ही वह पूरे शहर में प्रसिद्ध हो गया । एक बार गुरु गोविंद सिंह स्वयं उसके घर पर आए। वह बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन गुरुजी ने कहा कि वे कुछ देर ही ठहरेंगे। तभी एक व्यक्ति भागता हुआ आया और बोला, “वैद्य जी, मेरी पत्नी की तबियत बहुत खराब है। जल्दी चलिए अन्यथा बहुत देर हो जायेगी। वैद्य जी असमंजस में पड़ गए। एक ओर गुरु थे, जो पहली बार उनके घर आये थे। दूसरी ओर एक जरूरतमंद रोगी था। अंततः वैद्यजी ने कर्म को प्रधानता दी और इलाज के लिए चले गए। लगभग दो घण्टे के इलाज और देखभाल के बाद रोगी की हालत में सुधार हुआ। तब वे वहां से चले। उदास मन से उन्होंने सोचा कि गुरुजी के पास समय नहीं था। अबतक तो वे चले गए होंगे फिरभी वैद्यजी भागते हुए वापस घर पहुंचे। घर पहुंचकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। गुरुजी बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वैद्यजी उनके चरणों पर गिर पड़े। गुरु गोविंद सिंह जी ने उन्हें गले से लगा लिया और कहा, “तुम मेरे सच्चे शिष्य हो। सबसे बड़ी सेवा जरूरतमंदों की मदद करना है।”
इस कहानी से सीख:- दीन दुखियों और जरूरतमंदों की सेवा सबसे पहले की जानी चाहिए।
आलोचना
अमेरिका के सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के विषय में उनके विरोधी प्रायः कुछ न कुछ अखबारों में प्रकाशित करवाते रहते थे। किंतु लिंकन कभी उनका प्रतिउत्तर नहीं देते थे। एक दिन उनके एक मित्र ने कहा, “आपके विरोधी इतना कुछ आपके बारे में लिखते हैं। आप उनका जवाब क्यों नहीं देते ? आपको भी जवाब देब चाहिए।” लिंकन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “मित्र ! यदि मैं उनका जवाब देने लगूंगा तो मेरा सारा समय इसी में निकल जायेगा। फिर मैं कोई जनकल्याण का कार्य नहीं कर पाऊंगा। जीवन के अंत में यदि मैं अपने कार्यों के द्वारा बुरा साबित होता हूँ तो मेरे द्वारा दी गयी किसी सफाई का कोई मूल्य नहीं होगा। “यदि मैं एक अच्छा व्यक्ति साबित होता हूँ तो फिर इन आलोचनाओं का कोई मूल्य नहीं होगा। इसलिए मैं इनपर ध्यान दिए बिना चुपचाप अपना काम करता हूँ।”
इस कहानी से सीख:- यह प्रसंग सिखाता है कि हमें अपने कार्यों के द्वारा लोगों की आलोचनाओं का जवाब देना चाहिए।
डॉ सी वी रमन ( चंद्रशेखर वेंकटरमन ) | Dr. C.V. Raman Prerak Prasang
डॉ सीवी रमन भारत के सबसे महान वैज्ञानिकों में से एक थे , जिन्हें प्रकाश के प्रकीर्णन जिसका नाम उनके नाम पर रखा गया है और ‘ रमन इफेक्ट ’की खोज के लिए उनके काम के लिए भौतिकी में 1930 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जिसका नाम उनके नाम पर रखा गया है। चंद्रशेखर वेंकट रमन, जिन्हें आमतौर पर सीवी रमन भी कहा जाता है ,उनका जन्म 7 नवंबर, 1888 को तमिलाडुं के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उनकी मातृभाषा तमिल थी। वह चंद्रशेखर अय्यर और प्रावथी अम्मल के दूसरे बच्चे थे। उनके पिता गणित और भौतिकी के व्याख्याता थे। रमन बचपन से ही बहुत प्रतिभाशाली छात्र थे। चंद्रशेखर वेंकटरमन उन्होंने विशाखापत्तनम और मद्रास (चेन्नई) में अपनी शिक्षा पूरी की। वित्तीय सिविल सेवा प्रतियोगी परीक्षा में शीर्ष रैंकिंग प्राप्त करने के बाद, उन्हें कलकत्ता में उप महालेखाकार के रूप में नियुक्त किया गया था। उनके स्नातक होने के समय, भारत में वैज्ञानिकों के लिए कुछ ही अवसर थे। इसने उन्हें कलकत्ता में एक सहायक महालेखाकार के रूप में भारतीय सिविल सेवा के साथ काम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। वहां रहते हुए, वह अपने शेष समय में, विज्ञान के लिए भारतीय संघ की प्रयोगशालाओं में विज्ञान के क्षेत्र में काम करके, विज्ञान में अपनी रुचि बनाए रखने में सक्षम थे। उन्होंने उपकरणों( stringed instruments) और भारतीय ड्रम (Indian drums) के भौतिकी का अध्ययन किया। 1917 में, उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर की पेशकश की गई, और उन्होंने इस अवसर को स्वीकार करने का फैसला किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में 15 साल की सेवा के बाद, उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और बैंगलोर चले गए और भारतीय विज्ञान संस्थान के निदेशक बन गए, जहां दो साल बाद वे भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में काम किया । 1947 में, स्वतंत्र भारत की नई सरकार ने उन्हें पहले राष्ट्रीय प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने चुंबकीय आकर्षण और संगीत वाद्ययंत्र के सिद्धांत के क्षेत्र में भी काम किया। प्रोफ़ेसर सी वी रमन भी तबला और मृदंग जैसे भारतीय ड्रमों की ध्वनि की सुरीली प्रकृति की जाँच करने वाले पहले व्यक्ति थे। 1930 में, अपने इतिहास में पहली बार, एक भारतीय विद्वान, जो पूरी तरह से भारत में शिक्षित है, को विज्ञान में सर्वोच्च सम्मान, भौतिकी में ‘ नोबेल पुरस्कार ’मिला था । 1943 में, उन्होंने बैंगलोर के पास ‘रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। ‘रमन इफ़ेक्ट’ की उनकी खोज ने भौतिकी में बहुत विशिष्ट योगदान दिया। उन्हें 1954 में ‘भारत रत्न ’ से भी सम्मानित किया गया था। ‘ रमन इफ़ेक्ट’ एक पारदर्शी माध्यम से गुजरने वाले प्रकाश की गोलियों के कोलिशन ’प्रभाव का प्रदर्शन था, चाहे वह ठोस हो, तरल या गैसीय। 1957 में रमन को ‘ लेनिन शांति पुरस्कार ’से सम्मानित किया गया था। रमन की खोज की याद में भारत हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाता है। वह 1948 में भारतीय संस्थान से सेवानिवृत्त हुए और एक साल बाद, उन्होंने बैंगलोर में रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की, इसके निदेशक के रूप में सेवा की और अस्सी की उम्र में अपनी मृत्यु तक वहां सक्रिय रहे। सर वेंकट रमन की मृत्यु भारत के बैंगलोर में नवम्बर 21, 1970 को हुई। हमें उन पर गर्व करना चाहिए।
प्रेरक प्रसंग – सरदार पटेल की कर्तव्यनिष्ठा
सरदार बल्लभ भाई पटेल अदालत में एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। मामला बहुत गंभीर था। थोड़ी सी लापरवाही भी उनके क्लायंट को फांसी की सजा दिला सकती थी। सरदार पटेल जज के सामने तर्क दे रहे थे। तभी एक व्यक्ति ने आकर उन्हें एक कागज थमाया। पटेल जी ने उस कागज को पढ़ा। एक क्षण के लिए उनका चेहरा गंभीर हो गया। लेकिन फिर उन्होंने उस कागज को मोड़कर जेब में रख लिया। मुकदमे की कार्यवाही समाप्त हुई। सरदार पटेल के प्रभावशाली तर्कों से उनके क्लायंट की जीत हुई। अदालत से निकलते समय उनके एक साथी वकील ने पटेलजी से पूछा कि कागज में क्या था?
तब सरदार पटेल ने बताया कि वह मेरी मेरी पत्नी की मृत्यु की सूचना का तार था। साथी वकील ने आश्चर्य से कहा कि इतनी बड़ी घटना घट गई और आप बहस करते रहे।” सरदार पटेल ने उत्तर दिया, “उस समय मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था। मेरे क्लायंट का जीवन मेरी बहस पर निर्भर था।मेरी थोड़ी सी अधीरता उसे फांसी के तख्ते पर पहुंचा सकती थी। मैं उसे कैसे छोड़ सकता था? पत्नी तो जा ही चुकी थी। क्लायंट को कैसे जाने देता?” ऐसे गंभीर और दृढ़ चरित्र के कारण ही वे लौहपुरुष कहे जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग – अनसुनी बुराई
एक बार स्वामी विवेकानंद रेल से कही जा रहे थे | वह जिस डिब्बे में सफर कर रहे थे, उसी डिब्बे में कुछ अंग्रेज यात्री भी थे | उन अंग्रेजो को साधुओं से बहुत चिढ़ थी | वे साधुओं की भर – पेट निंदा कर रहे थे | साथ वाले साधु यात्री को भी गाली दे रहे थे | उनकी सोच थी कि चूँकि साधू अंग्रेजी नहीं जानते, इसलिए उन अंग्रेजों की बातों को नहीं समझ रहे होंगे | इसलिए उन अंग्रेजो ने आपसी बातचीत में साधुओं को कई बार भला – बुरा कहा | हालांकि उन दिनों की हकीकत भी थी कि अंग्रेजी जानने वाले साधु होते भी नहीं थे |
रास्ते में एक बड़ा स्टेशन आया | उस स्टेशन पर विवेकानंद के स्वागत में हजारों लोग उपस्थित थे, जिनमे विद्वान् एवं अधिकारी भी थे | यहाँ उपस्थित लोगों को सम्बोधित करने के बाद अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर स्वामीजी अंग्रेजी में ही दे रहे थे | इतनी अच्छी अंग्रेजी बोलते देखकर उन अंग्रेज यात्रियों को सांप सूंघ गया , जो रेल में उनकी बुराई कर रहे थे | अवसर मिलने पर वे विवेकानंद के पास आये और उनसे नम्रतापूर्वक पूछा – आपने हम लोगों की बात सुनी | आपने बुरा माना होगा ?
स्वामीजी ने सहज शालीनता से कहा – ” मेरा मस्तिष्क अपने ही कार्यों में इतना अधिक व्यस्त था कि आप लोगों की बात सुनी भी पर उन पर ध्यान देने और उनका बुरा मानने का अवसर ही नहीं मिला |” स्वामीजी की यह जवाब सुनकर अंग्रेजो का सिर शर्म से झुक गया और उन्होंने चरणों में झुककर उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली |
कहानी से सीख Moral of Story on :-
इस शिक्षाप्रद कहानी से सीख मिलती है कि हमें सदैव अपने लक्ष्य पर फोकस करना चाहिए |
महात्मा गाँधी प्रेरक प्रसंग – गलती की हैं तो माफी मांगो
गाँधी जी एक बार अपनी यात्रा पर निकले थे. तब उनके साथ उनके एक अनुयायी आनंद स्वामी भी थे. यात्रा के दौरान आनंद स्वामी की किसी बात को लेकर एक व्यक्ति से बहस हो गई और जब यह बहस बढ़ी तो आनंद स्वामी ने गुस्से में उस व्यक्ति को एक थप्पड़ मार दिया. जब गाँधी को इस बात का पता चला तो उन्हें आनंद जी की यह बात बहुत बुरी लगी. उन्हें आनंद जी का एक आम आदमी को थप्पड़ मारना अच्छा नहीं लगा।
इसलिए उन्होंने आनंद जी को बोला की वह इस आम आदमी से माफ़ी मांगे. गाँधी जी ने उनको बताया की अगर यह आम आदमी आपकी बराबरी का होता तो क्या आप तब भी इन्हें थप्पड़ मार देते. गाँधी जी की बात सुनकर आनंद स्वामी को अपनी गलती का अहसास हुआ. उन्होंने उस आम आदमी से इस बात को लेकर माफ़ी मांगी।
इस प्रसंग से सीख :-
हमें कभी भी अपने ऊपर घमंड नहीं करना चाहिए. आनंद जी को गाँधी जी का अनुयायी होने का घमंड था. लेकिन अगर वही कोई उनके टक्कर का आदमी होता तो वे उसके साथ ऐसा करने से पहले कई बार सोचते. इसलिए हमें कभी भी किसी गरीब या लाचार आदमी से लड़ना नहीं चाहिए. अगर कभी ऐसी गलती हो भी जाए तो विनम्रता से उस व्यक्ति से माफ़ी मांग ले।
ए. पी. जे. अब्दुल कलाम प्रेरक प्रसंग – तीव्र इच्छा शक्ति
दीपावली त्योहार का दिन था, एक छोटा मुस्लिम बालक भी हिन्दुओं का यह उल्लासपूर्ण पर्व मनाना चाहता था, लेकिन वह बहुत गरीब था, और चूँकि अखबार बेचकर वो बेचारा अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाता था और दो पैसे की मदद अपने गरीब बाप की भी किया करता था, अतः उसके पास पर्याप्त पैसों की कमी थी। संयोगवश उस दिन उसने अखबार बेचकर अन्य दिनों की अपेक्षा पाँच पैसे ज्यादा कमाये। तब वह पटाखे वाले के पास जाता है और उससे एक रॉकेट की माँग करता है, परन्तु वह विक्रेता रॉकेट देने से मना कर देता है यह कहते हुए कि पाँच पैसे में रॉकेट नहीं आता है। बालक निराश हो जाता है और दुकानदार से कहता है, ‘अच्छा मुझे पाँच पैसे के खराब पटाखे ही दे दो?’
‘खराब मतलब? वे किस काम आयेंगे?
‘मैं उनसे रॉकेट बना लूँगा?’
इसके बाद वह पाँच पैसे में ढेर सारे खराब पटाखों का कूड़ा उठा लाया और एक नहीं कई रॉकेट बनाये और उस दिन उसके गाँव में मुस्लिम मोहल्ले में गगन की दूरी नापने वाले दीवाली के रॉकेट केवल उस बालक के आँगन से ही छोड़े गये थे। वह बालक ही आगे चलकर मिसाइल-मैन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। और बाद में वह बालक भारत का राष्ट्रपति भी बना। उस बालक का नाम ए. पी. जे. अब्दुल कलाम था।
प्रसङ्ग से सीख :-
यदि मन में कुछ करने की तीव्र इच्छा हो तो आप अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर के प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना सकते हैं।
महात्मा गाँधी प्रेरक प्रसंग – नक़ल करना अपराध है
बात उन दिनों की है जब गाँधीजी अल्फ्रेड हाईस्कूल में अपनी आरंभिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे एक बार उनके स्कूल में निरीक्षण के लिए विद्यालय निरीक्षक आये हुए थे। उनके शिक्षक ने छात्रो को हिदायत दे रखी थी की निरीक्षक पर आप सब का अच्छा प्रभाव पड़ना चाहिए, जब निरीक्षक गाँधी जी की क्लास में आये तो उन्होंने बच्चो की परीक्षा लेने के लिए छात्रो को पांच शब्द बताकर उनके वर्तनी लिखने को कहा. निरीक्षक की बात सुनकर सारे बच्चे वर्तनी लिखने में लग गये। जब बच्चे वर्तनी लिख ही रहे थे की शिक्षक ने देखा की गाँधी जी ने एक शब्द की वर्तनी गलत लिखी है।
इस प्रसंग से सीख :- गाँधी जी का यह प्रसंग हमें बताता है कि हमें परीक्षा में कभी भी नक़ल नहीं करनी चाहिए बल्कि हमें जितना भी उस विषय के बारे में जानकारी पता है उसका उत्तर लिखना चाहिए। नक़ल करने से कभी भी कोई छात्र परीक्षा में पास नहीं हो सकता. इसलिए हमें ईमानदारी से परीक्षा देनी चाहिए।
शिक्षक दिवस पर प्रेरक प्रसंग – डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन महान दार्शनिक, तत्ववेत्ता, धर्मशास्त्री , शिक्षाशास्त्री, एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे । इन्होंने भारत के राष्ट्रपति जैसे पद को सुशोभित किया। इनका जन्म : 5 सितंबर, 1888 एवं देहअवसान : 17 अप्रैल, 1975 को हुआ।
डॉ. राधाकृष्णन का भारतीय संस्कृति के प्रति आगाध निष्ठा थी। वो भारत को शिक्षा के क्षेत्र में क्षितिज पर ले जाने को निरंतर प्रयासरत रहे। अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में समर्पित करने वाले डॉ राधाकृष्णन के ह्रदय में शिक्षकों के प्रति अगाध श्रद्धा भाव था । प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को शिक्षकों के सम्मान के रूप में शिक्षक दिवस सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। हर साल 5 सितंबर को देश में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। यह दिन डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान में मनाया जाता है जो देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। उनका जन्मदिन 5 सितंबर को ही पड़ता है। वह एक महान दार्शनिक, शिक्षक और विद्वान भी थे। आइये आज उनसे जुड़े कुछ रोचक किस्से जानते हैं…
डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन –
1. डॉ.राधाकृष्णन अपने छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। जब वह मैसूर यूनिवर्सिटी छोड़कर कलकत्ता यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए जाने लगे तो उनके छात्रों ने उनके लिए फूलों से सजी एक बग्धी का प्रबंध किया और उसे खुद खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले गए।
2. उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद के नक्शे कदम पर चलते हुए स्वेच्छा से राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी।
3. उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस तरह से उन्होंने राष्ट्रपति को आम लोगों के लिए भी खोल दिया।
4. वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन ‘वाइट हाउस’ में हेलिकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुंचे थे। इससे पहले दुनिया का कोई भी व्यक्ति वाइट हाउस में हेलिकॉप्टर से नहीं पहुंचा था।
5. उपराष्ट्रपति के तौर पर राधाकृष्णन ने राज्य सभा सत्रों की अध्यक्षता की। जब कभी भी सदस्यों के बीच आक्रोश पाया जाता तो वे उनको संस्कृत या बाइबिल के श्लोक सुनाने लगते थे। इस तरह से वे सदस्यों को शांत कराते थे।
6. जब राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने तो दुनिया के महान दर्शनशास्त्रियों में से एक बर्टेंड रसेल ने काफी प्रसन्नता जाहिर की। उन्होंने कहा, ‘डॉ.राधाकृष्णन का भारत का राष्ट्रपति बनना दर्शनशास्त्र के लिए सम्मान की बात है और एक दर्शनशास्त्री होने के नाते मुझे काफी प्रसन्नता हो रही है। प्लेटो ने दार्शनिकों के राजा बनने की इच्छा जताई थी और यह भारत के लिए सम्मान की बात है कि वहां एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाया गया है।’
7. जब वह भारत के राष्ट्रपति बने तो उनके कुछ छात्रों ने उनका जन्मदिन मनाना चाहा। उन्होंने जवाब दिया, ‘मेरा जन्मदिन मनाने की बजाए अगर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाए तो यह मेरे लिए गर्व की बात है।’ उनके सम्मान में तब से शिक्षक दिवस हर साल मनाया जाता है।
8. डॉक्टर राधाकृष्णन के पुत्र डॉक्टर एस. गोपाल ने 1989 में उनकी जीवनी का प्रकाशन किया जिसमें एस.गोपाल ने अपने पिता के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाली। इस जीवनी में एस.गोपाल ने राधाकृष्णन के जीवन के एक रोचक वाक्ये का भी जिक्र किया है। इसके मुताबिक सह-अस्तित्व को लेकर चर्चे के बाद राधाकृष्णन ने माओ के गाल थपथपाए थे। माओ ने उनके इस भाव को सराहा था लेकिन माओ के इर्द-गिर्द खड़े लोगों को यह लोगों को अजीब लगा। यह देखकर राधाकृष्णन ने कहा, ‘चिंता मत करो, मैंने ऐसा स्टालिन और पोप के साथ भी किया है।’
9.1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था- महाराज, आप ग्रीस के पहले राजा हैं, जो कि भारत में अतिथि की तरह आए हैं। सिकंदर तो यहां बगैर आमंत्रण का मेहमान बनकर आए थे।
प्रेरक प्रसंग – बलिदान दिवस पर प्रेरक प्रसंग
शहीद दिवस भारत में 23 मार्च को मनाया जाता है। शहीद दिवस मनाने का उद्देश्य, भारत माता के लिए अपने प्राणों की कुर्बानी देने वाले वीरों को श्रद्धांजलि प्रदान करना है। 23 मार्च 1931 को ही भारत के सबसे क्रान्तिकारी देशभक्त सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर चढ़ाया गया था। इन वीरों को नमन और श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए ही शहीद दिवस मनाया जाता है। एक दिन पहले दी गयी फांसी
इन तीनों क्रांतिकारियों को 24 मार्च 1931 को फांसी होनी थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार को डर था कि देश की जनता विरोध में ना उतर आये इसलिए उन्होंने एक दिन पहले ही 23 मार्च 1931 को सांय करीब 7 बजे भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर चढ़ा दिया। इन सभी के शव को इनके परिवार के लोगों को नहीं दिया गया और रात में ही इनका अंतिम संस्कार सतलज नदी के किनारे किया गया। सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूम लिया। ये क्रांतिकारी चाहते तो फांसी से बच सकते थे लेकिन इनको उम्मीद थी कि इनके बलिदान से देश की जनता में क्रांति भड़केगी और भारत की जनता ब्रिटिश सरकार को जड़ उखाड़ फेंकेगी। ठीक ऐसा ही हुआ, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने के बाद जनता का आक्रोश बहुत भड़क गया। पूरे देश में आजादी के लिए आंदोलन और तेज हो गये और एक बड़ी क्रांति का उदय हुआ।