रियल लाइफ स्टोरी इन हिंदी 2022

( किसी के व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित : प्रेरक सत्य कथा )ऐसी सत्य कथाऐं जिनको पढ़ने के बाद शायद आप भी अपनी ज़िंदगी जीने का अंदाज़ बदलना चाहें

हृदय में भगवान – आज की प्रेरक कहानी

यह घटना जयपुर के एक वरिष्ठ डॉक्टर की आपबीती है, जिसने उनका जीवन बदल दिया। वह हृदय रोग विशेषज्ञ हैं। 

उनके द्वारा बताई प्रभु कृपा की कहानी के अनुसार:-
एक दिन मेरे पास एक दंपत्ति अपनी छः साल की बच्ची को लेकर आए। निरीक्षण के बाद पता चला कि उसके हृदय में रक्त संचार बहुत कम हो चुका है।
मैंने अपने साथी डाक्टर से विचार करने के बाद उस दंपत्ति से कहा – 30% संभावना है बचने की दिल को खोलकर ओपन हार्ट सर्जरी करनी पड़ेगी, नहीं तो बच्ची के पास सिर्फ तीन महीने का समय है! माता पिता भावुक हो कर बोले, “डाक्टर साहब ! इकलौती बिटिया है। ऑपरेशन के अलावा और कोई चारा नहीं है, मैंने अन्य कोई विकल्प के लिए मना कर दिया दंपति ने कहा आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिये।” सर्जरी के पांच दिन पहले बच्ची को भर्ती कर लिया गया। बच्ची मुझ से बहुत घुलमिल चुकी थी, बहुत प्यारी बातें करती थी। उसकी माँ को प्रार्थना में अटूट विश्वास था। वह सुबह शाम बच्ची को यही कहती, बेटी घबराना नहीं। भगवान बच्चों के हृदय में रहते हैं। वह तुम्हें कुछ नहीं होने देंगे। सर्जरी के दिन मैंने उस बच्ची से कहा, “बेटी ! चिन्ता न करना, ऑपरेशन के बाद आप बिल्कुल ठीक हो जाओगे।” बच्ची ने कहा, “डाक्टर अंकल मैं बिलकुल नहीं डर रही क्योंकि मेरे हृदय में भगवान रहते हैं, पर आप जब मेरा हार्ट ओपन करोगे तो देखकर बताना भगवान कैसे दिखते हैं ?” मै उसकी बात पर मुस्कुरा उठा।
ऑपरेशन के दौरान पता चल गया कि कुछ नहीं हो सकता, बच्ची को बचाना असंभव है, दिल में खून का एक कतरा भी नहीं आ रहा था। निराश होकर मैंने अपनी साथी डाक्टर से वापिस दिल को स्टिच करने का आदेश दिया।
तभी मुझे बच्ची की आखिरी बात याद आई और मैं अपने रक्त भरे हाथों को जोड़ कर प्रार्थना करने लगा, “हे ईश्वर ! मेरा सारा अनुभव तो इस बच्ची को बचाने में असमर्थ है, पर यदि आप इसके हृदय में विराजमान हो तो आप ही कुछ कीजिए।” मेरी आँखों से आँसू टपक पड़े। यह मेरी पहली अश्रु पूर्ण प्रार्थना थी। इसी बीच मेरे जूनियर डॉक्टर ने मुझे कोहनी मारी। मैं चमत्कार में विश्वास नहीं करता था पर मैं स्तब्ध हो गया यह देखकर कि दिल में रक्त संचार पुनः शुरू हो गया। मेरे 60 साल के जीवन काल में ऐसा पहली बार हुआ था। आपरेशन सफल तो हो गया पर मेरा जीवन बदल गया। होश में आने पर मैंने बच्ची से कहा, “बेटा ! हृदय में भगवान दिखे तो नहीं पर यह अनुभव हो गया कि वे हृदय में मौजूद हर पल रहते हैं। इस घटना के बाद मैंने अपने आपरेशन थियेटर में प्रार्थना का नियम निभाना शुरू किया। मैं यह अनुरोध करता हूँ कि सभी को अपने बच्चों में प्रार्थना का संस्कार डालना ही चाहिए।
हे परम् पिता तुम ही- सुधि ले रहे जन जन की।
कुछ कहने से पहले ही – सब जानते हो मन की।।

बस हमें भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए और न ही किसी काम के लिए भजन सिमरन में ढील देनी हैं। वह मालिक अपने आप ही हमारे काम सिद्ध और सफल करेगा।
इसीलिए हमें भी मन से हार नहीं माननी चाहिए और निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए, निरंतर प्रार्थना करते रहनी चाहिए।

घर मे कोई नही है – आज की कहानी

शाम को दफ़्तर से घर आते समय देखा कि एक छोटा-सा बोर्ड रेहड़ी की छत से लटक रहा था जिस पर मार्कर से लिखा हुआ था:
घर मे कोई नही है, मेरी बूढ़ी माँ बीमार है, मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें खाना, दवा और हाजत कराने के लिए घर जाना पड़ता है, अगर आपको जल्दी है तो अपनी इच्छा से फल तौल लें और पैसे कोने पर गत्ते के नीचे रख दें।साथ ही मूल्य भी लिखे हुये हैं और यदि आपके पास पैसे न हों तो मेरी ओर से ले लेना…अनुमति है।
मैंने इधर-उधर देखा। पास पड़े तराज़ू में दो किलो सेब तौले, एक दर्जन केले लिए…बैग में डाले…प्राइस लिस्ट से कीमत देखी…पैसे निकालकर गत्ते को उठाया… वहाँ सौ, पचास और दस-दस के नोट पड़े थे। मैंने भी पैसे उसमें रख कर उसे ढक दिया। बैग उठाया और घर आ गया। खाना खाकर श्रीमती और मैं घूमते-घूमते उधर से निकले तो देखा एक कृशकाय अधेड़ आयु का व्यक्ति मैले से कुर्ते-पाज़ामे में रेहड़ी को धक्का लगा कर बस जाने ही वाला था। वह हमें देख कर मुस्कुराया और बोला, “साहब! फल तो ख़त्म हो गए। मैनें यूँ ही बात करने के इरादे से उसका नाम पूछा। उसने बताया भी लेकिन मैंने सुना-अनसुना कर दिया और उत्सुकतावश रेहड़ी पर टंगे बोर्ड के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया, “पिछले तीन साल से अम्मा बिस्तर पर हैं,कुछ पागल-सी भी हो गईं हैं और अब तो उसे लकवा भी हो गया है। मेरी कोई संतान नहीं है। पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी है। अब केवल मैं हूँ और माँ..! माँ की देखभाल करने वाला कोई नही है इसलिए मुझे हर समय माँ का ध्यान रखना पड़ता है।”
एक दिन मैंने माँ के पाँव दबाते हुए बड़ी नरमी से कहा, “माँ! तेरी सेवा को तो बड़ा जी चाहता है। पर जेब खाली है और तू मुझे कमरे से बाहर निकलने नहीं देती। कहती है – तू जाता है तो जी घबराने लगता है। तू ही बता मै क्या करूँ? अब आसमान से तो खाना उतरेगा नहीं।
ये सुन कर माँ कमज़ोर-सी हँसी हँसी और हाँफते-काँपते उठने की कोशिश की। मैंने तकिये की टेक लगाई। माँ ने झुर्रियों वाला चेहरा उठाया, अपने कमज़ोर हाथों को नमस्कार की मुद्रा में जोड़ा और भगवान से होठों-होठों में बुदबुदाकर न जाने क्या बात की,फिर बोली…
“तू रेहड़ी वहीं छोड़ आया कर हमारे भाग्य का हमें इसी कमरे में बैठ कर मिलेगा।”
“मैंने कहा, माँ क्या बात करती हो। वहाँ छोड़ आऊँगा तो कोई चोर-उचक्का सब कुछ ले जायेगा। आजकल कौन किसी की मजबूरी देखता है? और बिना मालिक के कौन फल ख़रीदने आएगा?”
माँ कहने लगी, “तू सुबह भगवान का नाम लेकर रेहड़ी को फलों से भरकर छोड़ आया कर और रोज़ शाम को खाली रेहड़ी ले आया कर, बस। मुझसे ज़्यादा ज़ुबानज़ोरी मत कर। मुझे अपने भगवान पर भरोसा है। अगर तेरा नुक़सान हो तो कहना।”
ढाई साल हो गए हैं भाईसाहब… सुबह रेहड़ी लगा आता हूँ शाम को ले आता हूँ। लोग पैसे रख जाते है, फल ले जाते हैं। एक धेला भी ऊपर-नीचे नही होता बल्कि कुछ तो ज़्यादा भी रख जाते हैं।कभी कोई माँ के लिए फूल रख जाता है,कभी कोई और चीज़। परसों एक बच्ची पुलाव बना कर रख गयी साथ मे एक पर्ची भी थी – *”माँ के लिए”*
एक डॉक्टर साहब अपना कार्ड छोड़ गए। पीछे लिखा था…माँ की तबियत नाज़ुक हो तो मुझे कॉल कर लेना, मैं आ जाऊँगा। यह मेरी माँ की सेवा का फल है या माँ की दुआओं की शक्ति, नहीं जानता।
न मेरी माँ अपने पास से हिलने देती है न मेरा भगवान मेरा काम रुकने देता है। माँ कहती है भगवान तेरे फल देवदूतों से बिकवा देता है। पता नहीं…माँ भोली है या मैं अज्ञानी।
मैं तो केवल इतना ही समझ पाया कि हम अपने माँ-बाप की सेवा करें तो ईश्वर स्वयं हमें सफल बनाने के लिए अग्रसर हो जाता है।
वह कहकर चला गया और मैं वहीं खड़ा रह गया। अवाक! किन्तु श्रद्धा से सराबोर।

तराजू – आज की मन की बात

“कभी मेरी भावनाओं का ध्यान नहीं रखते। जब देखो तब बस उन्हें माँ जी की ही चिंता रहती है। मैं भी अब वापस नहीं जाना चाहती वहाँ। रहे अपनी माँ के साथ और खूब सेवा करें।”
ससुराल से लड़-झगड़कर मायके आयी बेटी की भुनभुनाहट विभा जी बड़ी देर से सुन रही थी। बात कुछ खास नहीं थी। वही घर-गृहस्थी के छोटे-मोटे मनमुटाव और खींचतान।
जब बेटी अपनी भड़ास निकालकर चुप हुई तब विभा जी ने बोलना शुरू किया।
“हम जब सब्जी लेने जाते हैं तो जितनी सब्जी चाहिए उसके लिए क्या करते हैं?”
उनके इस अजीबो गरीब सवाल पर बेटी अचकचा गयी-
“तराजू में तुलवाते हैं, और क्या।”
“और सही तोल के लिए क्या करते हैं?” विभा जी ने फिर एक अटपटा प्रश्न किया।
“एक पलड़े में सब्जी तो दूसरे पलड़े में जितनी चाहिए उतने का बाट या वजन रखते हैं।” बेटी झुंझलाकर बोली।
“अगर हमें एक किलो सब्जी चाहिए तो क्या दो सौ ग्राम का बाट रखने से मिल जाएगी?” विभा जी ने एक और प्रश्न किया बेटी से।
“कैसी बचकानी बात कर रही हो माँ, दो सौ ग्राम के बाट रखने से भला एक किलो सब्जी कैसे तुलेगी?” बेटी अब सचमुच झुंझला गयी थी।
“तो फिर बेटी सम्मान और प्यार के सौ ग्राम बाट रखकर तुम किलो भर की आशा कैसे कर सकती हो?” विभा जी गम्भीर स्वर में बोली।
“क्या मतलब….” बेटी हकबका गयी।
“मतलब ये की रिश्ते भी तराजू की तरह होते हैं। दोनो पलड़े संतुलित तभी होंगे जब वजन बराबर होगा” विभा जी बोली।
बेटी उनका मुँह देखने लगी चुप होकर।
“तुम सास को सम्मान और माँ समान प्रेम नहीं देती, पति को सहयोग नहीं करती और चाहती हो तो घर में सब तुम्हे पलकों पर बिठायें, खूब सम्मान दें, तो ऐसा नहीं होता।”
विभा जी ने समझाया तो बेटी का चेहरा उतर गया।
“जितना प्रेम, सम्मान ससुराल वालों से चाहती हो पहले अपने पलड़े में उनके लिए उतना रखो। तभी रिश्तों का तराजू संतुलित रहेगा।”
बेटी की आँखे भर आयी। अपनी गलती वो समझ चुकी थी।

कसाई का दिल और गाय – प्रेरक प्रसंग छोटा सा

कोजो मार्फो, अफ्रीका (घाना) में एक ऐसे कसाई थे जो कुछ वर्ष पहले रोजाना 8-10 गायों को काटते थे और आज गायों को पूजते हैं बल्कि संसार के सबसे महंगे व व्यस्ततम पेंटर हैं। उनकी पेंटिंग का मुख्य विषय गाय है। एक गाय की आंखों ने उनका दिल कुछ इस तरह बदला कि जब वे उसे काट रहे थे तो उसकी मरती हुई आंखों ने उन्हें भीतर तक झकझोर डाला। वे अब पूरी तरह से शाकाहारी हैं जो किसी अफ्रीकी मनुष्य के लिए व्यावहारिक हिसाब से लगभग नामुमकिन है। वे कहते हैं कि गाय केवल एक जानवर ही नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण मानव सभ्यता का वाहन है। भारत में गाय को मां और भगवान मानकर हिन्दू लोग पूजते हैं। यह संसार की सबसे विकसित, वैज्ञानिक, प्राकृतिक, परिमार्जित, सौम्य और सहिष्णु संस्कृति में ही सम्भव है। इसलिए सभ्य बनने के लिये दुनिया को भारत की ओर देखना ही पड़ता है। अफ्रीका में भी लोग गाय को बहुत इज्जत देते हैं क्योंकि यह कृषि कार्यों में आज भी उपयोगी है और अगर किसी युवा के पास 3-4 गायें होती हैं तो उसे विवाह के लिये सुंदर स्त्री आसानी से मिल जाती है।
कोजो अब संसार भर में घूम रहे हैं हर जगह उनसे कसाई से पेन्टर बनने के बदलाव के बारे में सवाल पूछे जाते हैं और वे एक ही जवाब देते हैं मुझे कुछ नहीं मालूम परमात्मा ही जानता होगा। मैंने जीवन में कभी रंग छुए भी नहीं थे, हाथ सदा खून में ही रंगे रहते थे!
कोजो जो चित्र बनाते हैं उसमें गाय, एकल स्त्री, मनुष्य, पक्षी और कुत्ते मुख्य विषय हैं। वे उनके कंकाल और शरीर की भीतरी रचना (Anatomy) को भी चित्रित करते हैं क्योंकि कसाई का काम करने से वे anatomy को बेहतरीन ढंग से समझते हैं। उन्हे सबसे अधिक आनंद गाय के चित्र बनाने में आता है और उनके सभी चित्र भारत और अफ्रीका की गुफाओं में हजारों साल पहले मानव पुरखों द्वारा बनाए गए चित्रों जैसे ही हैं और कोजो का कहना है कि *उन्होंने वे गुफा चित्र आज तक देखे नहीं हैं लेकिन जब भी बनाते हैं तो ठीक वैसे ही चित्र बनते हैं ना जाने क्यों? इसका जवाब भी परमात्मा ही दे सकता है।
कोजो ने पूरी दुनिया से अपील की है कि लोग गाय का मांस खाना, उसे मारना, सताना छोड़ दें, गाय का अस्तित्व मनुष्यों से भी बढ़कर है इस धरती के लिए।
कोजो की पेंटिंग्स इन दिनों न्यूयॉर्क और लंदन की सबसे प्रतिष्ठित आर्ट गैलरीज में प्रदर्शित हैं। वे कभी न्यूयॉर्क में भी कसाई का काम करते थे और घाना (अफ्रीका) के अपने पहाड़ी गांव, गाय और मेहनतकश अकेली स्त्रियों को आज भी याद करते हुए उन्हीं के चित्र बनाते हैं।
उनका कहना है गाय, स्त्री और यह धरती एक ही है।
लेखक : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र शर्मा

गुलामी की सीख – प्रेरक कहानी

दास प्रथा के दिनों में एक मालिक के पास अनेकों गुलाम हुआ करते थे। उन्हीं में से एक था लुक़मान। लुक़मान था तो सिर्फ एक गुलाम लेकिन वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान था। उसकी ख्याति दूर दराज़ के इलाकों में फैलने लगी थी। एक दिन इस बात की खबर उसके मालिक को लगी, मालिक ने लुक़मान को बुलाया और कहा- सुनते हैं, कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं तुम्हारी बुद्धिमानी की परीक्षा लेना चाहता हूँ।
अगर तुम इम्तिहान में पास हो गए तो तुम्हें गुलामी से छुट्टी दे दी जाएगी। अच्छा जाओ, एक मरे हुए बकरे को काटो और उसका जो हिस्सा बढ़िया हो, उसे ले आओ। लुक़मान ने आदेश का पालन किया और मरे हुए बकरे की जीभ लाकर मालिक के सामने रख दी। कारण पूछने पर कि जीभ ही क्यों लाया ! लुक़मान ने कहा- अगर शरीर में जीभ अच्छी हो तो सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होता है। मालिक ने आदेश देते हुए कहा- “अच्छा! इसे उठा ले जाओ और अब बकरे का जो हिस्सा बुरा हो उसे ले आओ।”
लुक़मान बाहर गया, लेकिन थोड़ी ही देर में उसने उसी जीभ को लाकर मालिक के सामने फिर रख दिया। फिर से कारण पूछने पर लुक़मान ने कहा- “अगर शरीर में जीभ अच्छी नहीं तो सब बुरा-ही-बुरा है। “उसने आगे कहते हुए कहा- “मालिक! वाणी तो सभी के पास जन्मजात होती है, परन्तु बोलना किसी-किसी को ही आता है…क्या बोलें? कैसे शब्द बोलें, कब बोलें। इस एक कला को बहुत ही कम लोग जानते हैं। एक बात से प्रेम झरता है और दूसरी बात से झगड़ा होता है।
कड़वी बातों ने संसार में न जाने कितने झगड़े पैदा किये हैं। इस जीभ ने ही दुनिया में बड़े-बड़े कहर ढाये हैं। जीभ तीन इंच का वो हथियार है जिससे कोई छः फिट के आदमी को भी मार सकता है तो कोई मरते हुए इंसान में भी प्राण फूंक सकता है । संसार के सभी प्राणियों में वाणी का वरदान मात्र मानव को ही मिला है। उसके सदुपयोग से स्वर्ग पृथ्वी पर उतर सकता है और दुरूपयोग से स्वर्ग भी नरक में परिणत हो सकता है।
भारत के विनाशकारी महाभारत का युद्ध वाणी के गलत प्रयोग का ही परिणाम था। “मालिक, लुक़मान की बुद्धिमानी और चतुराई भरी बातों को सुनकर बहुत खुश हुए ; आज उनके गुलाम ने उन्हें एक बहुत बड़ी सीख दी थी और उन्होंने उसे आजाद कर दिया।
शिक्षा:-
मित्रों, मधुर वाणी एक वरदान है जो हमें लोकप्रिय बनाती है वहीं कर्कश या तीखी बोली हमें अपयश दिलाती है . का प्रतिबिम्ब है, उसे अच्छा होना ही चाहिए।

कामवाली बाई (घर की नौकरानी) सच्ची घटना पर आधारित

यह बात कुछ दिनों पुरानी है, जब स्कूल बस की हड़ताल चल रही थी ।
मेरे पति अपने व्यवसाय की एक आवश्यक मीटिंग में बिजी थे, इसलिए मेरे 5 साल के बेटे को स्कूल से लाने के लिए मुझे टू-व्हीलर पर जाना पड़ा ।
जब मैं टू व्हीलर से घर की ओर वापस आ रही थी, तब अचानक रास्ते में मेरा बैलेंस बिगड़ा और मैं एवं मेरा बेटा हम दोनों गाड़ी सहित नीचे गिर गए ।
मेरे शरीर पर कई खरोंच आए, लेकिन प्रभु की कृपा से मेरे बेटे को कहीं खरोंच तक नहीं आई ।
हमें नीचे गिरा देखकर आसपास के कुछ लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने हमारी मदद करनी चाही ।
तभी मेरी कामवाली बाई राधा ने मुझे दूर से ही देख लिया और वह दौड़ी चली आई । उसने मुझे सहारा देकर खड़ा किया, और अपने एक परिचित की सहायता से मेरी गाड़ी एक दुकान पर खड़ी करवा दी ।
वह मुझे कंधे का सहारा देकर अपने घर ले गई जो पास में ही था ।
जैसे ही हम घर पहुँचे, वैसे ही राधा के दोनों बच्चे हमारे पास आ गए ।
राधा ने अपने पल्लू से बंधा हुआ 50 का नोट निकाला और अपने बेटे राजू को दूध, बैंडेज एवं एंटीसेप्टिक क्रीम लेने के लिए भेजा तथा अपनी बेटी रानी को पानी गर्म करने का बोला । उसने मुझे कुर्सी पर बिठाया तथा मटके का ठंडा जल पिलाया । इतने में पानी गर्म हो गया था ।
वह मुझे लेकर बाथरूम में गई और वहाँ पर उसने मेरे सारे जख्मों को गर्म पानी से अच्छी तरह से धोकर साफ किया और बाद में वह उठकर बाहर गई ।
वहाँ से वह एक नया टावेल और एक नया गाउन मेरे लिए लेकर आई ।
उसने टावेल से मेरा पूरा बदन पोंछा तथा जहाँ आवश्यक था, वहाँ बैंडेज लगाई । साथ ही जहाँ मामूली चोट थी, वहाँ पर एंटीसेप्टिक क्रीम लगाया ।
अब मुझे कुछ राहत महसूस हो रही थी । उसने मुझे पहनने के लिए नया गाउन दिया वह बोली “यह गाउन मैंने कुछ दिन पहले ही खरीदा था, लेकिन आज तक नहीं पहना मैडम आप यही पहन लीजिए तथा थोड़ी देर आप रेस्ट कर लीजिए” ।
“आपके कपड़े बहुत गंदे हो गये हैं, हम इन्हें धो कर सुखा देंगे, फिर आप अपने कपड़े बदल लेना ।”
मेरे पास कोई चॉइस नहीं थी । मैं गाउन पहनकर बाथरुम से बाहर आई । उसने झटपट अलमारी में से एक नया चद्दर निकाला और पलंग पर बिछाकर बोली आप थोड़ी देर यहीं आराम कर लीजिए ।
इतने में बिटिया ने दूध भी गर्म कर दिया था । राधा ने दूध में दो चम्मच हल्दी मिलाई और मुझे पीने को दिया और बड़े विश्वास से कहा– “मैडम! आप यह दूध पी लीजिए, आपके सारे जख्म भर जाएंगे ।
लेकिन अब मेरा ध्यान तन पर था ही नहीं, बल्कि मेरे अपने मन पर था ।
मेरे मन के सारे जख्म एक एक कर के हरे हो रहे थे । मैं सोच रही थी “कहाँ मैं और कहाँ यह राधा ?”
जिस राधा को मैं फटे–पुराने कपड़े देती थी, उसने आज मुझे नया टावेल दिया, नया गाउन दिया और मेरे लिए नई बेडशीट लगाई । धन्य है यह राधा ।
एक तरफ मेरे दिमाग में यह सब चल रहा था, तब दूसरी तरफ राधा गरम–गरम चपाती और आलू की सब्जी बना रही थी । थोड़ी देर में वह थाली लगाकर ले आई । वह बोली “आप और बेटा दोनों खाना खा लीजिए” ।
राधा को मालूम था कि मेरा बेटा आलू की सब्जी ही पसंद करता है और उसे गरम गरम रोटी चाहिए । इसलिए उसने रानी से तैयार करवा दी थी । रानी बड़े प्यार से मेरे बेटे को आलू की सब्जी और रोटी खिला रही थी और मैं इधर प्रायश्चित की आग में जल रही थी । सोच रही थी कि जब भी इसका बेटा राजू मेरे घर आता था, मैं उसे एक तरफ बिठा देती थी, उसको नफरत से देखती थी और इन लोगों के मन में हमारे प्रति कितना प्रेम है ?
यह सब सोच–सोच कर मैं आत्मग्लानि से भरी जा रही थी । मेरा मन दुख और पश्चाताप से भर गया था ।
तभी मेरी नज़र राजू के पैरों पर गई जो लंगड़ा कर चल रहा था ।
मैंने राधा से पूछा– “राधा इसके पैर को क्या हो गया तुमने इलाज नहीं करवाया ?” राधा ने बड़े दुख भरे शब्दों में कहा– “मैडम! इसके पैर का ऑपरेशन करवाना है, जिसका खर्च करीबन ₹10000 है” ।
‘मैंने और राजू के पापा ने रात दिन मेहनत कर के ₹5000 तो जोड़ लिए हैं, ₹5000 की और आवश्यकता है । हमने बहुत कोशिश की लेकिन कहीं से मिल नहीं सके ।”
“ठीक है, भगवान का भरोसा है, जब आएंगे तब इलाज हो जाएगा । फिर हम लोग कर ही क्या सकते हैं ?”
तभी मुझे ख्याल आया कि राधा ने एक बार मुझसे ₹5000 अग्रिम मांगे थे और मैंने बहाना बनाकर मना कर दिया था । आज वही राधा अपने पल्लू में बंधे सारे रुपए हम पर खर्च कर के खुश थी और हम उसको, पैसे होते हुए भी मुकर गए थे और सोच रहे थे कि बला टली ।
आज मुझे पता चला कि उस वक्त इन लोगों को पैसों की कितनी सख्त आवश्यकता थी ।
मैं अपनी ही नजरों में गिरती ही चली जा रही थी ।
अब मुझे अपने शारीरिक जख्मों की चिंता बिल्कुल नहीं थी, बल्कि उन जख्मों की चिंता थी जो मेरी आत्मा को मैंने ही लगाए थे । मैंने दृढ़ निश्चय किया कि जो हुआ सो हुआ, लेकिन आगे जो होगा वह सर्वश्रेष्ठ ही होगा ।
मैंने उसी वक्त राधा के घर में जिन–जिन चीजों का अभाव था, उसकी एक लिस्ट अपने दिमाग में तैयार कर ली । थोड़ी देर में मैं लगभग ठीक हो गई ।
मैंने अपने कपड़े चेंज किए, लेकिन वह गाउन मैंने अपने पास ही रखा और राधा को बोला– “यह गाऊन अब तुम्हें कभी भी नहीं दूंगी, यह गाऊन मेरी जिंदगी का सबसे अमूल्य तोहफा है” ।
राधा बोली मैडम यह तो बहुत हल्की रेंज का है । राधा की बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था । मैं घर आ गई लेकिन रात भर सो नहीं पाई ।
मैंने अपनी सहेली के मिस्टर, जो की हड्डी रोग विशेषज्ञ थे, उनसे राजू के लिए अगले दिन का अपॉइंटमेंट लिया । दूसरे दिन मेरी किटी पार्टी भी थी । लेकिन मैंने वह पार्टी कैंसिल कर दी और राधा की जरूरत का सारा सामान खरीदा और वह सामान लेकर मैं राधा के घर पहुँच गई ।
राधा समझ ही नहीं पा रही थी कि इतना सारा सामान एक साथ मैं उसके घर में क्यों लेकर गई ?
मैंने धीरे से उसको पास में बिठाया और बोला मुझे मैडम मत कहो मुझे अपनी बहन ही समझो, यह सारा सामान मैं तुम्हारे लिए नहीं लाई हूँ, मेरे इन दोनों प्यारे बच्चों के लिए लाई हूँ और हाँ! मैंने राजू के लिए एक अच्छे डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ले लिया है, हम को शाम 7:00 बजे उसको दिखाने चलना है, उसका ऑपरेशन जल्द से जल्द करवा लेंगे और तब राजू भी अच्छी तरह से दौड़ने लग जाएगा । राधा यह बात सुनकर खुशी के मारे रो पड़ी लेकिन यह भी कहती रही कि मैडम यह सब आप क्यों कर रही हैं ? हम बहुत छोटे लोग हैं, हमारे यहाँ तो यह सब चलता ही रहता है । वह मेरे पैरों में गिरने लगी ।
यह सब सुनकर और देखकर मेरा मन भी द्रवित हो उठा और मेरी आँखों से भी आँसू के झरने फूट पड़े । मैंने उसको दोनों हाथों से ऊपर उठाया और गले लगा लिया, मैंने बोला बहन रोने की जरूरत नहीं है, अब इस घर की सारी जवाबदारी मेरी है । मैंने मन ही मन कहा राधा तुम क्या जानती हो कि मैं कितनी छोटी हूँ और तुम कितनी बड़ी हो ?आज तुम लोगों के कारण ही मेरी आँखें खुल सकी है । मेरे पास इतना सब कुछ होते हुए भी मैं भगवान से और अधिक की भीख मांगती रही, मैंने कभी संतोष का अनुभव नहीं किया ।
❤️लेकिन आज मैंने जाना कि असली खुशी पाने में नहीं देने में है ।❤️
मैं परमपिता परमेश्वर को बार-बार धन्यवाद दे रही थी, कि आज उन्होंने मेरी आँखें खोल दी । मेरे पास जो कुछ था, वह बहुत अधिक था, उसके लिए मैंने परमात्मा को बार-बार अपने ऊपर उपकार माना तथा उस धन को जरूरतमंद लोगों के बीच खर्च करने का पक्का निर्णय किया ।

नेल्सन मांडेला से जुड़ी प्रेरक कहानी | वक्त बदलता है प्रेरक कथा

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद ऐक बार नेल्सन मांडेला अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गए। सबने अपनी अपनी पसंद का खाना आर्डर किया और खाना आने का इंतजार करने लगे।
उसी समय मांडेला की सीट के सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति अपने खाने का इंतजार कर रहा था। मांडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी से कहा कि उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ। खाना आने के बाद सभी खाने लगे, वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर रेस्तरां से बाहर निकल गया। उस आदमी के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वख़्त उसके हाथ लगातार कांप रहे थे और वह ख़ुद भी कांप रहा था।
मांडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे कैद रखा गया था। जब कभी मुझे यातनाएं दी जाती थीं और मै कराहते हुए पानी मांगता था तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।
मांडेला ने कहा मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ शायद वैसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा चरित्र ऐसा नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।

टिकट कहाँ है? प्रेरक कहानी 

मुंबई से बैंगलुरू जा रही ट्रेन में सफ़र के दौरान टीसी ने सीट के नीचे छिपी लगभग तेरह/चौदह साल की ऐक लड़की से कहा-
टीसी “टिकट कहाँ है?”
काँपती हुई लडकी “नहीं है साहब।”
टी सी “तो गाड़ी से उतरो।”
इसका टिकट मैं दे रही हूँ।…………पीछे से ऐक सह यात्री ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।
ऊषा जी – “तुम्हें कहाँ जाना है ?”
लड़की – “पता नहीं मैम!”
ऊषा जी – “तब मेरे साथ चलो, बैंगलोर तक!”
ऊषा जी – “तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की – “चित्रा”
बैंगलुरू पहुँच कर ऊषाजी ने चित्रा को अपनी जान पहचान की ऐक स्वंयसेवी संस्था को सौंप दिया और ऐक अच्छे स्कूल में भी एडमीशन करवा दिया। जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली हो गया जिसके कारण चित्रा से संपर्क टूट गया, कभी-कभार केवल फोन पर बात हो जाया करती थी।
करीब बीस साल बाद ऊषाजी को एक लेक्चर के लिए सेन फ्रांसिस्को (अमरीका) बुलाया गया । लेक्चर के बाद जब वह होटल का बिल देने रिसेप्सन पर गईं तो पता चला पीछे खड़े एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल चुका दिया था।
ऊषाजी “तुमने मेरा बिल क्यों भरा?”
मैम, यह मुम्बई से बैंगलुरू तक के रेल टिकट के सामने कुछ भी नहीं है ।
ऊषाजी “अरे चित्रा!” …
चित्रा और कोई नहीं बल्कि इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति थीं जो इंफोसिस के संस्थापक श्री नारायण मूर्ति की पत्नी हैं।
यह लघु कथा उन्ही की लिखी पुस्तक “द डे आई स्टाॅप्ड ड्रिंकिंग मिल्क” से ली गई है।
कभी कभी आपके द्वारा की गई किसी की सहायता, किसी का जीवन बदल सकती है।
यदि जीवन में कुछ कमाना है तो पुण्य अर्जित कीजिये, क्योंकि यही वो मार्ग है जो स्वर्ग तक जाता है….

उम्मीद पर प्रेरक प्रसंग कहानी | Ek sachhi kahani

1950 के दशक में हावर्ड यूनिवर्सिटी के विख्यात साइंटिस्ट कर्ट रिचट्टर ने चूहों पर एक अजीबोगरीब शोध किया था।
कर्ड ने एक जार को पानी से भर दिया और उसमें एक जीवित चूहे को डाल दिया।
पानी से भरे जार में गिरते ही चूहा हड़बड़ाने लगा औऱ
जार से बाहर निकलने के लिए लगातार ज़ोर लगाने लगा।
चंद मिनट फड़फड़ाने के पश्चात चूहे ने जार से बाहर निकलने का अपना प्रयास छोड़ दिया और वह उस जार में डूबकर मर गया।
कर्ट ने फ़िर अपने शोध में थोड़ा सा बदलाव किया।
उन्होंने एक दूसरे चूहे को पानी से भरे जार में पुनः डाला। चूहा जार से बाहर आने के लिये ज़ोर लगाने लगा।
जिस समय चूहे ने ज़ोर लगाना बन्द कर दिया और वह डूबने को था……ठीक उसी समय कर्ड ने उस चूहे को मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया।
कर्ड ने चूहे को उसी क्षण जार से बाहर निकाल लिया जब वह डूबने की कगार पर था।
चूहे को बाहर निकाल कर कर्ट ने उसे सहलाया ……कुछ समय तक उसे जार से दूर रखा और फिर एकदम से उसे पुनः जार में फेंक दिया।
पानी से भरे जार में दोबारा फेंके गये चूहे ने फिर जार से बाहर निकलने की अपनी जद्दोजेहद शुरू कर दी।
लेकिन पानी में पुनः फेंके जाने के पश्चात उस चूहे में कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिले जिन्हें देख कर स्वयं कर्ट भी बहुत हैरान रह गये।
कर्ट सोच रहे थे कि चूहा बमुश्किल 15 – 20 मिनट तक संघर्ष करेगा और फिर उसकी शारीरिक क्षमता जवाब दे देगी और वह जार में डूब जायेगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
चूहा जार में तैरता रहा। अपनी जीवन बचाने के लिये लगातार सँघर्ष करता रहा।
60 घँटे …….
जी हाँ …..60 घँटे तक चूहा पानी के जार में अपने जीवन को बचाने के लिये सँघर्ष करता रहा।
कर्ट यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये।
जो चूहा महज़ 15 मिनट में परिस्थितियों के समक्ष हथियार डाल चुका था ……..वही चूहा 60 घंटों तक कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा था और हार मानने को तैयार नहीं था।
कर्ट ने अपने इस शोध को एक नाम दिया और वह नाम था…….” The HOPE Experiment“…..!
Hope……..यानि आशा।
कर्ट ने शोध का निष्कर्ष बताते हुये कहा कि जब चूहे को पहली बार जार में फेंका गया …..तो वह डूबने की कगार पर पहुंच गया …..उसी समय उसे मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया गया। उसे नवजीवन प्रदान किया गया।
उस समय चूहे के मन मस्तिष्क में “आशा” का संचार हो गया। उसे महसूस हुआ कि एक हाथ है जो विकटतम परिस्थिति से उसे निकाल सकता है।
जब पुनः उसे जार में फेंका गया तो चूहा 60 घँटे तक सँघर्ष करता रहा…….
वजह था वह हाथ…वजह थी वह आशा …वजह थी वह उम्मीद!!!
इसलिए हमेशा…….
उम्मीद बनाये रखिये, सँघर्षरत रहिये,
सांसे टूटने मत दीजिये, मन को हारने मत  दीजिए ।

एक गुमनाम हीरो

यह एक बहादुर नारी की कहानी है, अंजलि कांथे, जो कामा और अल्बलेस हॉस्पिटल फॉर विमेन एंड चिल्ड्रन में एक स्टाफ नर्स थीं, जिन्होंने 26/11 के आतंकवादी हमलों की रात 20 से अधिक लोगों की जान बचाने में मदद की थी।
उस दिन 50 वर्षीय अंजलि रात 8 बजे से सुबह 8 बजे तक प्रसूता वार्ड में थी, जहाँ 20 गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी होने वाली थी।
परंतु, 26 नवंबर 2008 की रात की परिस्थियां आतंकवादियों के हमले के कारण काफी बदल गई। उनमें से एक आतंकवादी अजमल कसाब अस्पताल परिसर में प्रवेश कर गया था। उसने दो गार्डों को गोली मार दी, जो अस्पताल प्रवेश द्वार पर खून से लथपथ पड़े थे। उसने एक नर्स को भी घायल कर दिया।
यह भांपते हुए कि आतंकवादी पहली मंजिल पर चढ़ रहे हैं, अंजलि हरकत में आई और वार्ड के सभी दरवाजे बंद कर दिए और किसी तरह 20 गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार के कुछ सदस्यों को वार्ड से दूर कैंटीन में ले जाने में सफल रही और वह घायल नर्स को कैजुअल्टी वार्ड से सुरक्षित स्थान पर ले गई। इसके बाद उन्होंने ड्यूटी डॉक्टर को फोन कर पुलिस को सूचना दी।
इमारत ग्रेनेड विस्फोट के साथ गूंज रही थी क्योंकि आतंकवादी इमारत की छत से पुलिस बल के साथ गोलाबारी कर रहे थे।
इस बीच, वार्ड में, दो उच्च रक्तचाप(बी. पी) से ग्रस्त महिलाओं में से एक को प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हो गई। अंजलि ने तुरंत ही उपचार की क्रिया शुरू कर दी और उस मरीज को दूसरी मंजिल पर डिलीवरी वार्ड में ले गई और वहाँ डॉक्टरों ने केवल एक ट्यूबलाइट की रोशनी में एक कमरे में बच्चे को जन्म देने में मदद की 28 नवंबर को आतंकवादी हमले समाप्त होने के बाद, अंजलि को एक महीने के बाद कसाब की पहचान करने में मदद करने के लिए बुलाया गया, जो अकेला आतंकवादी पकड़ा गया था। शुरुआती अनिच्छा के बाद, वह मान गई और उसे पहचान भी लिया। उसने नर्स की वर्दी पहनकर मुकदमे में कसाब के खिलाफ गवाही भी दी और कहा कि उसे वर्दी से ताकत मिलती है। हमलों के बाद, उसने महसूस किया कि उसे अपने मरीजों की देखभाल करने के लिए जीना है। यह उनका कर्तव्य है। लेकिन वह इस घटना को भूल नहीं पाई। लगभग एक महीने तक, जरा सी भी आवाज उन्हें परेशान कर देती थी और वह रात में अचानक जाग जाती थी। उन्हें अस्पताल में मैट्रन द्वारा काउंसलिंग दी गई और घटना के बाद उन्हें अधिक कार्य या रात की पारी में ड्यूटी नहीं दी गई।
उनके बारे में जो बात सराहनीय थी वह यह थी कि जब वह ड्यूटी पर थी, तो वह एक पल के लिए भी नहीं घबराई, डरी या टूटी नहीं। मरीज उनकी जिम्मेदारी थे और उन्हें उनकी देखभाल करनी थी। उन्होंने वैसा ही व्यवहार किया जैसा उनकी वर्दी की माँग थी। 
इस दुनिया में, लोग क्रिकेटरों, फिल्मी सितारों और यहाँ तक ​​कि राजनेताओं से प्रेरणा लेते हैं, पर वे उन लोगों को पहचानने में विफल होते हैं जो वास्तव में हमारे समाज में सम्मान और पहचान के पात्र हैं।
ऐसे कई साहसी लोग हुए हैं जिन्होंने मानवता की भलाई के लिए काम किया है लेकिन समाज द्वारा उन्हें अनदेखा किया गया जबकि वे वास्तव में सम्मान के पात्र थे, पर वे गुमनामी में खो गए। उनका जीवन हम सभी के लिए एक प्रेरणा है और यह समय की मांग है कि हम उन्हें वह पहचान दें जिसके वे हकदार हैं।
आइए ऐसे गुमनाम नायकों को नमन करें और उनके योगदान को पहचानें ताकि उनका नाम इतिहास के पन्नों से गायब न हो जाए। हम उन्हें कम से कम यह सम्मान तो दे ही सकते हैं।
“साहस, डर नहीं लगने में नहीं है, डर पर काबू पाने में सक्षम होना ही असली साहस है।”

अनमोल रत्न

बुजुर्ग रघुवीर जी अपनी पत्नी के साथ अपनी रिटायर्ड जिंदगी बहुत हंसी खुशी बीता रहे थे पेंशन से दोनों पति पत्नी अपनी जीविका से खुश थे …..वैसे तो घर बडा था और उनके तीन बेटे बहुऐ भी थी मगर उनके तीनो बेटे अलग अलग शहरों में अपने अपने परिवारों के साथ व्यस्त थे । वैसे उन्होनें नियम बना रखा था….दीपावली हो या कोई अन्य त्यौहार तीनों बेटे सपरिवार उनके पास आएंगे साथ रहेंगे खाएंगे वक्त बिताऐगे । पूरे एक सप्ताह तक….
वो एक सप्ताह कैसे मस्ती में बीत जाता था कुछ पता ही नही चलता था, सारा परिवार खुशी से झूम उठता ….अलग अलग भले ही रहते थे मगर उस एक सप्ताह में पूरी कसर साथ रहने की खत्म हो जाती …उन सुखद अनुभव और खुशियों के सहारे रघुवीरजी और सुधा की जिंदगी सुखद थी ।
मगर फिर उनकी खुशियो को जैसे नज़र ही लग गई..अचानक सुधा जी को एक रात दिल का दौरा पडा …और एक झटके में उनकी सारी खुशियां बिखर गई।
तीनो बेटे दुखद समाचार पाकर दौड़े आए…
उनके सब क्रियाकर्म के बाद सब शाम को एकत्रित हो गए, बड़ी बहू ने बात उठाई….बाबूजी… अब आप यहां अकेले कैसे रह पाऐंगे… आप हमारे साथ चलिऐ ।
नही बहू…. अभी यही रहने दो…यहां अपनापन लगता है… सुधा की अनेकों यादें है और फिर बच्चों की गृहस्थी में…..कहते कहते रघुवीरजी चुप से हो गए , बड़ा पोता कुछ बोलने को हुआ…उन्होंने हाथ के इशारे से उसे चुप कर दिया ।
“बच्चो…. अब तुम लोगों की मां हम सबको छोड़ कर जा चुकी है उसकी कुछ चीजें है, वो तुम लोग आपस में बांट लो मुझसे अब उनकी साज सम्हाल नही हो पाऐगी, कहते हुए अलमारी से रघुवीरजी कुछ निकाल कर लाए….
मखमल के थैले में बहुत सुंदर चांदी का श्रृंगार दान था। एक बहुत सुंदर सोने के पट्टे वाली पुरानी रिस्टवाच थी ,
सब इतनी खूबसूरत चीजों पर लपक से पड़े….छोटा बेटा जोश में बोला….अरे ये घड़ी ….ये तो अम्मा सरिता को देना चाहती थी।
रघुवीरजी धीरे से बोले….बच्चों और सब तो मै तुम लोगो को बराबर से दे ही चुका हूं इन दो चीजों से उन्हे बहुत लगाव था बेहद चाव से कभी कभी निकाल कर देखती थी…..लेकिन अब कैसे उनकी दो चीजो को तुम तीनों में बांटू समझ नही आ रहा।
सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, तभी मंझला बेटा बड़े संकोच से बोला ये चांदी का श्रृंगार दान छोटे के अनुसार वो मीरा को देने की बात करती थी तो वह ले ले….और सोने के पट्टे वाली रिस्टवाच मंझली बहु को तो वह ले ले…..पर….पर ऐसे तो समस्या तो बनी ही रहेगी …रघुवीर जी मन में सोच रहे थे…..बड़ी बहू को क्या दूं ?
उनके मन के भाव शायद उसने पढ़ लिए….बाबूजी… आप शायद मेरे विषय में सोच रहे है…
आप ये श्रृंगार दाध मीरा को …
और रिस्टवाच सरिता को दे दीजिए….. अम्मा भी तो यही चाहती थी ।
पर नंदिनी….तुम्हें…. तुम्हें क्या दूं…..समझ में नही आ रहा….आखिर तुम भी तो मेरी बहु हो मेरी बेटी बाबूजी….. आपके पास एक और अनमोल रत्न है और वो अम्माजी मुझे ही देना चाहती थी ।
रघुवीर जी की तरह दोनों बेटे बहु भी हैरानी से बडी बहु को देखने लगे… अब कौन सा पिटारा खुलेगा…
और कौनसा वो अनमोल रत्न है जो बडी भाभी चांदी के श्रृंगार दान और सोने के पट्टे वाली रिस्टवाच को छोड उस अनमोल रत्न को पाना चाहती है …..जरूर बेहद कीमती ….या अमूल्य होगा…..
हे भगवान! शायद हमने जल्दबाजी कर दी….
सबकी हैरानी और परेशानी को भांप कर बड़ी बहू नंदिनी मुस्कुरा कर बोली….वो सबसे अनमोल रत्न तो आप स्वयं हैं बाबूजी…!
पिछली बार अम्माजी ने मुझसे कह दिया था…मेरे बाद बाबूजी की देखरेख तेरे जिम्मे…
बस अब आप उनकी इच्छा का पालन करे और हमारे साथ चलें, रघुवीर जी की आँखें खुशी से और कृतज्ञता से भीग गई।
दोस्तों जीवन मे सबसे अनमोल हमारे माता पिता हमारे बुजुर्ग है इनका आशीर्वाद, इनके अनुभव, इनकी सलाह, इनकी छत्रछाया, यह सभी किसी अनमोल रत्न अनमोल धरोहर से कम नही है।

“मैं” नहीं “हम”

एयर कमोडोर विशाल जेट पायलट थे। एक लड़ाई के मिशन में उनका लड़ाकू विमान एक मिसाइल द्वारा नष्ट हो गया था। हालाँकि उन्होंने खुद को बाहर निकाल लिया और पैराशूट से धरती पर सुरक्षित उतर गए।
उन्हें कई लोगों से प्रशंसा और सराहना मिली। घटना के पाँच साल बाद एक दिन वह अपनी पत्नी के साथ एक रेस्टोरेंट में बैठे थे। तभी नजदीक की एक टेबल से एक आदमी उसके पास आया और कहा, “आप कैप्टन विशाल हैं ना, आप जेट फाइटर उड़ाते हैं ना? एक बार आपका फाइटर प्लेन मिसाइल से नष्ट हो गया था ना?”
“तुम्हें कैसे पता?” विशाल ने पूछा।
“उस दिन मैंने ही आपका पैराशूट पैक किया था,” उस आदमी ने मुस्कुराकर उत्तर दिया।
विशाल की साँसें अचानक तेज हो गई। उन्होंने सोचा कि अगर उस समय पैराशूट ने काम नहीं किया होता, तो वे आज यहाँ नहीं होते। ये सोच कर उसके रोंगटे खड़े हो गए और दिल कृतज्ञता से भर गया। उस रात विशाल को नींद नहीं आई। उन्होंने सोचा कि उसे मैंने कितनी ही बार देखा होगा, पर कभी उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया, कभी उससे नहीं पूछा कि “आप कैसे हैं?” या किसी भी तरीके से बात नहीं की, क्योंकि मैं एक फाइटर पायलट था और वह व्यक्ति सिर्फ एक साधारण सुरक्षा कर्मचारी था। तो दोस्तों हमारा पैराशूट कौन पैक कर रहा है?
हर किसी के पास कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है, जो उसे वह प्रदान करता है जिसकी उसे दिन भर आवश्यकता होती है। सुरक्षित रूप से जीने के लिए जीवन में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक आध्यात्मिक सभी तरह के पैराशूट की आवश्यकता होती है। कभी-कभी दैनिक चुनौतियों के बीच, जो जीवन हमें देता है, हम यह महत्त्वपूर्ण बात चूक जाते हैं।
हम उनका अभिवादन करने, कृपया, या धन्यवाद कहने में असफल हो सकते हैं पर हम उनके किसी आयोजन पर उन्हें बधाई या अभिवादन संदेश दे सकते है या बिना किसी कारण के भी उनके लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं।
आइए, प्रतिदिन रात को सोने से पहले कम से कम 03 व्यक्तियों को धन्यवाद दे। हम अपनी आँखें बंद करके और उस व्यक्ति का नाम याद करने की कोशिश करे, जो हमारे घर में कचरा इकट्ठा करने के लिए आता है, हमारे घर के बाहर हर दिन झाड़ू लगाने वाली महिला, हमारी सोसाइटी का सुरक्षा गार्ड। या कोई भी व्यक्ति जिसने आज किसी भी तरह की आपकी मदद करी है।

तीसरी कक्षा का रजिस्टर

डिप्रेशन ग्रस्त एक सज्जन जब 50+ के हुए थे….तो उनकी पत्नी ने काउंसलर का appointment लिया जो ज्योतिषी भी था। रूबरू बात में कहा कि ये भयंकर डिप्रेशन में हैं , कुंडली भी देखो इनकी…। मन का हाल भी बता दिया… और कहा कि मैं भी ठीक नहीं हूँ । ज्योतिषी ने कुंडली देखी, सब सही पाया । अब उसने काउंसलिंग शुरू की । फिर सज्जन की पत्नी को बाहर बैठने को कहा और कुछ पर्सनल बातें भी पूछीं।
सज्जन बोलते गए….
बहुत परेशान हूँ,,, चिंताओं से दब गया हूँ,, नौकरी का प्रेशर, बच्चों के एज्युकेशन और जॉब की टेंशन, घर का लोन, कार का लोन, कुछ मन नहीं करता, दुनियाँ तोप समझती है.. पर मेरे पास कारतूस जितना सामान भी नहीं…!!!
मैं डिप्रेशन में हूँ … कहते हुए पूरी जीवन किताब खोल दी।
तब
काउंसलर ने कुछ सोचा और पूछा…..
तीसरी (class3) में किस स्कूल में पढ़ते थे… ?
सज्जन ने उसे स्कूल का नाम बता दिया…
काउंसलर ने कहा आपको उस स्कूल जाना होगा …
वहाँ आपकी तीसरी क्लास के सारे रजिस्टर लेकर आना होगा…
सज्जन स्कूल गए… रजिस्टर लाए ।काउंसलर ने कहा अपने साथियों का वर्तमान हालचाल की जानकारी लाने की कोशिश करो । उसे डायरी में लिख और एक माह बाद मिलना।
कुल 4 रजिस्टर । जिसमें 200 नाम थे ।
और महीना भर दिन रात घूमा… और बमुश्किल 120 अपने सहपाठियों के बारे में जानकारी एकत्रित कर पाए।
आश्चर्य उसमें से 20% लोग मर चुके थे ।
7 % लड़कियाँ विधवा । और 13 % तलाकशुदा या सेपरेटेड थी।। 15 % नशेड़ी निकले, जो बात करने लायक़ नहीं थे । 20 % का पता ही नहीं चला की अब वो कहाँ है ???
5 % इतने ग़रीब निकले कि पूछो मत…,5 % इतने अमीर निकले कि उनसे पूछा ही नहीं गया ।।
कुछ लकवा या डायबिटीज़, अस्थमा या दिल के रोगी निकले, 2 का एक्सीडेंट्स में हाथ/पाँव या रीढ़ की हड्डी में चोट से बिस्तर पर थे।।
2 से 3% के बच्चे पागल..वेगाबॉण्ड… या निकम्मे निकले!!
1 जेल में था.. और।
1 अब 50 की उम्र सैटल हुआ था इसलिए अब शादी करना चाहता था…
1 अभी भी सैटल नहीं था और दो तलाक़ के बावजूद तीसरी शादी की फ़िराक़ में था…
महीने भर में … “तीसरी कक्षा के सारे रजिस्टर ” भाग्य की व्यथा ख़ुद ही सुना रहा था…
काउंसलर ने खुद पूछा । अब बताओ डिप्रेशन कैसा है ???
अब सज्जन को समझ आ गई कि उसे कोई बीमारी नहीं, वो भूखा नहीं मर रहा, दिमाग एकदम सही है, कचहरी पुलिस वकीलों से उसका पाला नही पड़ा,,,उसके बीवी,बच्चे बहुत अच्छे हैं, स्वस्थ हैं, वो भी स्वस्थ है। डाक्टर, अस्पताल से पाला नही पड़ा।
उन्होंने रियलाइज़ किया कि दुनियाँ में वाक़ई बहुत दु:ख हैं..मै बहुत सुखी और भाग्यशाली हूँ… दो बात तय हुई आज कि…
धीरूभाई अम्बानी बनें या न बनें न सही..और भूखा नहीं मरे….बीमार बिस्तर पर न गुजारें,,, जेल में दिन न गिनना पड़े तो ऊपर वाले को धन्यवाद देना कि सब सर्वोत्तम है।
क्या अब आपको भी ऐसा लगता है। कि आप डिप्रेशन में हैं ।।
अगर आप को भी ऐसा लगता है तो आप भी तीसरी कक्षा का रजिस्टर स्कूल जाकर ले आएं ।

पछतावा

आस्ट्रेलिया की ब्रोनी वेयर कई वर्षों तक कोई सार्थक काम तलाशती रहीं, लेकिन कोई शैक्षणिक योग्यता एवं अनुभव न होने के कारण बात नहीं बनी। फिर उन्होंने एक हॉस्पिटल की Palliative Care Unit में काम करना शुरू किया। यह वो संभाग होता है जिसमें terminally ill या last stage वाले मरीजों को रखा जाता है। यहाँ मृत्यु से जूझ रहे लाईलाज बीमारियों व असहनीय दर्द से पीड़ित मरीजों के मेडिकल डोज़ को धीरे-धीरे कम किया जाता है और काऊँसिलिंग के माध्यम से उनकी spiritual and faith healing की जाती है ताकि वे एक शांतिपूर्ण मृत्यु की ओर उन्मुख हो सकें। ब्रोनी वेयर ने ब्रिटेन और मिडिल ईस्ट में कई वर्षों तक मरीजों की counselling करते हुए पाया कि मरते हुए लोगों को कोई न कोई पछतावा ज़रूर था। कई सालों तक सैकड़ों मरीजों की काउंसलिंग करने के बाद ब्रोनी वेयर ने मरते हुए मरीजों के सबसे बड़े ‘पछतावे’ या ‘regret’ में एक कॉमन पैटर्न पाया। जैसा कि हम सब इस universal truth से वाकिफ़ हैं कि मरता हुआ व्यक्ति हमेशा सच बोलता है, उसकी कही एक-एक बात epiphany अर्थात ‘ईश्वर की वाणी’ जैसी होती है। मरते हुए मरीजों के इपिफ़नीज़ को ब्रोनी वेयर ने 2009 में एक ब्लॉग के रूप में रिकॉर्ड किया। बाद में उन्होनें अपने निष्कर्षों को एक किताब “THE TOP FIVE REGRETS of the DYING” के रूप में प्रकाशित किया। छपते ही यह विश्व की Best Selling Book साबित हुई और अब तक लगभग 29 भाषाओं में छप चुकी है। पूरी दुनिया में इसे 10 लाख से भी ज़्यादा लोगों ने पढ़ा और प्रेरित हुए। ब्रोनी द्वारा listed ‘पाँच सबसे बड़े पछतावे’ संक्षिप्त में ये हैं:-
1) “काश मैं दूसरों के अनुसार न जी कर अपने अनुसार ज़िंदगी जीने की हिम्मत जुटा पाता!” यह सबसे ज़्यादा कॉमन रिग्रेट था, इसमें यह भी शामिल था कि जब तक हम यह महसूस कर पाते हैं कि अच्छा स्वास्थ्य ही आज़ादी से जीने की राह देता है तब तक यह हाथ से निकल चुका होता है। 
2) “काश मैंने इतनी कड़ी मेहनत न की होती” ब्रोनी ने बताया कि उन्होंने जितने भी पुरुष मरीजों का उपचार किया लगभग सभी को यह पछतावा था कि उन्होंने अपने रिश्तों को समय न दे पाने की ग़लती मानी। ज़्यादातर मरीजों को पछतावा था कि उन्होंने अपना अधिकतर जीवन अपने कार्य स्थल पर खर्च कर दिया! उनमें से हर एक ने कहा कि वे थोड़ी कम कड़ी मेहनत करके अपने और अपनों के लिए समय निकाल सकते थे। 
3) “काश मैं अपनी फ़ीलिंग्स का इज़हार करने की हिम्मत जुटा पाता” ब्रोनी वेयर ने पाया कि बहुत सारे लोगों ने अपनी भावनाओं का केवल इसलिए गला घोंट दिया ताकि शाँति बनी रहे, परिणाम स्वरूप उनको औसत दर्ज़े का जीवन जीना पड़ा और वे जीवन में अपनी वास्तविक योग्यता के अनुसार जगह नहीं पा सके! इस बात की कड़वाहट और असंतोष के कारण उनको कई बीमारियाँ हो गयीं। 
4) “काश मैं अपने दोस्तों के सम्पर्क में रहा होता” ब्रोनी ने देखा कि अक्सर लोगों को मृत्यु के नज़दीक पहुँचने तक पुराने दोस्ती के पूरे फायदों का वास्तविक एहसास ही नहीं हुआ था! अधिकतर तो अपनी ज़िन्दगी में इतने उलझ गये थे कि उनकी कई वर्ष पुरानी ‘गोल्डन फ़्रेंडशिप’ उनके हाथ से निकल गयी थी। उन्हें ‘दोस्ती’ को अपेक्षित समय और ज़ोर न देने का गहरा अफ़सोस था। हर कोई मरते वक्त अपने दोस्तों को याद कर रहा था।
5) “काश मैं अपनी इच्छानुसार स्वयं को खुश रख पाता!!!” आम आश्चर्य की यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात सामने आयी कि कई लोगों को जीवन के अन्त तक यह पता ही नहीं लगता है कि ‘ख़ुशी’ भी जीने की एक पसंद या विकल्प है! हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि- ‘ख़ुशी वर्तमान पल में है’…

एक अदृश्य स्टिकर

मेरे आगे वाली कार कछुए की तरह चल रही थी और मेरे बार-बार हॉर्न देने पर भी रास्ता नहीं दे रही थी । मैं अपना आपा खो कर चिल्लाने ही वाला था कि मैंने कार के पीछे लगा एक छोटा सा स्टिकर देखा जिस पर लिखा था “शारीरिक विकलांग ; कृपया धैर्य रखें” ! और यह पढ़ते ही जैसे सब-कुछ बदल गया !! मैं तुरंत ही शांत हो गया और कार को धीमा कर लिया . यहाँ तक की मैं उस कार और उसके ड्राईवर का विशेष खयाल रखते हुए चलने लगा कि कहीं उसे कोई तक़लीफ न हो . मैं ऑफिस कुछ मिनट देर से ज़रुर पहुँचा मगर मन में एक संतोष था।
इस घटना ने दिमाग को हिला दिया . क्या मुझे हर बार शांत करने और धैर्य रखने के लिए किसी स्टिकर की ही ज़रुरत पड़ेगी ? हमें लोगों के साथ धैर्यपूर्वक व्यवहार करने के लिए हर बार किसी स्टिकर की ज़रुरत क्यों पड़ती है ? क्या हम लोगों से धैर्यपूर्वक अच्छा व्यवहार सिर्फ तब ही करेंगे जब वे अपने माथे पर कुछ ऐसे स्टिकर्स चिपकाए घूम रहे होंगे कि…….
“मेरी नौकरी छूट गई है”,
“मैं कैंसर से संघर्ष कर रहा हूँ”,
“मेरी शादी टूट गई है”,
“मैं भावनात्मक रुप से टूट गया हूँ”,
“मुझे प्यार में धोखा मिला है”,
“मेरे प्यारे दोस्त की अचानक ही मौत हो गई”,
“लगता है इस दुनिया को मेरी ज़रुरत ही नहीं”,
“मुझे व्यापार में बहुत घाटा हो गया है”……आदि !
दोस्तों , हर इंसान अपनी ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसी जंग लड़ रहा है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते . बस हम यही कर सकते हैं कि लोगों से धैर्य और प्रेम से बात करें । आइए हम इन अदृश्य स्टिकर्स को सम्मान दें । दूसरों की मदद करने से दिल मे खुशी हो, वही सेवा है बाकी सब दिखावा है।

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