आज हम इस पोस्ट में भगवान श्री कृष्ण से जुड़े हुए बेहतरीन प्रेरक प्रसंग कहानियाँ शेयर करने जा रहे है Lord Shree Krishna Inspirational Storys in Hindi भगवान श्री कृष्ण हिन्दू धर्म से जुड़े महत्वपूर्ण महापुरुष है जिन्होंने इस सभय्ता को नई दिशा दी है इनके द्वारा महाभारत के युद्ध में श्री अर्जुन को दिया गया गीता ज्ञान आज भी जीवन के लिए प्रेरणा का कार्य करता है जो भी श्री मद्भगवद गीता जी को श्रद्धा के साथ पढता है तो उसके जीवन में भटकाव समाप्त हो जाता है और जीवन में निश्चित ही सफलता को प्राप्त करता है।
दुनिया भर में हिंदू धर्म का तेजी से बढ़ता प्रभाव इस्कॉन के खिलाफ वारसॉ, पोलैंड में एक नन द्वारा अदालत में दायर एक मामला देखें ! नन ने अदालत में टिप्पणी की कि इस्कॉन पोलैंड और दुनिया भर में अपनी गतिविधियों का प्रसार कर रहा है, और इस्कॉन ने पोलैंड में कई अनुयायी बनाए हैं। इसलिए वह इस्कॉन पर प्रतिबंध चाहती है क्योंकि उसके अनुयायी ‘कृष्ण’ का महिमामंडन कर रहे हैं जो ढीले चरित्र के थे और उन्होंने 16,000 गोपियों से शादी की थी। इस्कॉन के वकील ने न्यायाधीश से अनुरोध किया: “आप कृपया इस नन से उस शपथ को दोहराने के लिए कहें जो उसने नन बनने पर ली थी” जज ने नन से जोर से शपथ लेने को कहा, लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहती थी। तब इस्कॉन के वकील ने स्वयं उस शपथ को पढ़ने के लिए न्यायाधीश से अनुमति मांगी। जज ने आदेश दिया, इस्कॉन के वकील ने कहा कि दुनिया भर में नन बनने के दौरान लड़कियां शपथ लेती हैं कि “मैं यीशु को अपने पति के रूप में स्वीकार करती हूं और उनके अलावा किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाऊंगी”… इस्कॉन के वकील ने कहा, “सर, जज! तो मुझे बताओ कि अब से पहले कितने लाख ननों ने जीसस से शादी की और भविष्य में कितनी नन जीसस से शादी करेंगी।” भगवान कृष्ण पर एक ही आरोप है कि उन्होंने 16,000 गोपियों से शादी की थी, लेकिन दुनिया में दस लाख से भी ज्यादा नन हैं, जिन्होंने शपथ ली है कि उन्होंने ईसा मसीह से शादी कर ली है अब आप ही बताएं कि ईसा मसीह और श्री कृष्ण में से कौन अधिक ढीला चरित्र (निम्न चरित्र) है? इसके अलावा आप नैनो के चरित्र के बारे में क्या कहेंगे ? जज ने दलील सुनने के बाद मामले को खारिज कर दिया।
जय श्री कृष्ण
सनातन धर्म के लोगो, कृपया आप भी आज जान लीजिये कि :-
भगवान याने श्वयं श्री कृष्ण भगवान ने अपने मनुष्य रुप जीवन काल में ऐक बार ऐक साथ 16000 = सोलह हज़ार लड़कियों के साथ ऐक ही मंडप में शादी जरुर कि है । लेकिन ईन 16000 पत्नीयों से कभी भी कोई भी सारीरीक संबंध नहीं जोड़ा है , इस शादी का कारण ये है कि मथुरा के राजा ओर भगवान श्री कृष्ण के सगे मामा कंस ने अपने व्याभीचार ओर उपभोग के लिये सोलह हज़ार लड़कियों को क़ैद मे बंदी बनाकर रखा था …! और जब कंस का वध श्री कृष्ण भगवान ने किया था ओर सभी लोगों को कंस कि जेल से मुक्त किया था, यहाँ बड़ी मुसीबत ये भी थीं के ये लड़कीयां जीसका कोई सहारा ही नहीं है तो ये कहाँ जायेगी और ईस हालत ओर उस जमाने के कोई भी माँ बाप ईन लड़कीयों को अपने साथ रखने के लिये तैयार नहीं थे। ऐसे में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम दाउजी ने ही भगवान श्री क्रुष्ण को आज्ञा दी थी । बलराम दाउजी ने कहा था कि यह सभी लड़कियाँ अगर समाज में जब भी घुलमिल जायेंगीं तो व्याभीचार बहोत बढ़ जायेगा और कोई भी व्यक्ति ईन लड़कीयों का मान संम्मान नहीं करेंगे। अगर भगवान श्री कृष्ण ईन लड़कियों से शादी करते हैं तो सभी लड़कियों को समाज में बड़ा मान संम्मान दीया जायेगा और भगवान श्री कृष्ण कि पत्नी होने से कोई भी व्यक्ति ईन लड़कियों को गंदी नज़र से नहीं देख सकेगा । भगवान श्री कृष्ण ने ईन सोलह हज़ार लड़कियों से जीवन पर्यंत कोई सेवा नहीं ली थी और ना ही शादी के बाद मिलने भी नहीं गये हैं। “श्री मद् भागवत गीता “ में ईस बात को स्पष्ट रुप में बताया गया है ओर सनातन संस्कृति घर्म के कई शास्त्रों में भी लिखा हुआ है। ये भगवान श्री कृष्ण के जीवन का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है ….!
सूरदास का स्वप्न – अवसाद से बचने का संदेश देती आज की कहानी
कभी सूरदास ने एक स्वप्न देखा था कि रुक्मिणी और राधिका मिली हैं और एक दूजे पर न्योछावर हुई जा रही हैं। कैसा होगा वह क्षण जब दोनों ठकुरानियाँ मिली होंगी। दोनों ने प्रेम किया था। एक ने बालक कन्हैया से, दूसरे ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था, और दूसरे को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी, महायोद्धा कृष्ण। कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले। रुक्मिणी कृष्ण की पत्नी थीं, पटरानी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है। उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन। कितनी अद्भुत लीला है। राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था, रुक्मिणी के लिए कन्हैया कृष्ण थे। पत्नी होने के बाद भी रुक्मिणी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें “तुम” कह पातीं। आप से तुम तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है। रुख्मिनी कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं। राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही ‘तुम’ से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही “चरम” से किया था। शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले। कितना अजीब है न! कृष्ण जिसे नहीं मिले, युगों युगों से आजतक उसी के हैं, और जिसे मिले उसे मिले ही नहीं। तभी कहता हूँ, कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। बस प्रेम कर के छोड़ दीजिए, जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। राधिका हों या सुदामा, कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया। राधा और रुक्मिणी जब मिली होंगी तो रुक्मिणी राधा के वस्त्रों में माखन की गंध ढूंढती होंगी, और राधा ने रुक्मिणी के आभूषणों में कृष्ण का वैभव तलाशा होगा। कौन जाने मिला भी या नहीं। सबकुछ कहाँ मिलता है मनुष्य को… कुछ न कुछ तो छूटता ही रहता है। जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं उतनी तो किसी से नहीं छूटीं। कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे। संगी-साथी छूटे। राधा छूटीं। गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी। कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा। कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे। ~हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए। जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा।~ कृष्ण आनंद के देवता है। कुछ छूटने पर भी कैसे खुश रहा जा सकता है, यह कृष्ण से अच्छा कोई सिखा ही नहीं सकता। महागुरु था मेरा कन्हैया…
कृष्णा सिर्फ सत्य बताते है- बाकी चुनाव आपका रहता है
महाभारत युद्ध प्रारम्भ प्रारम्भ होने वाला था। दोनों पक्ष अपनी अपनी सेना बढ़ाने में लगे हुए थे। देश विदेश के असँख्य राज्यों की सेनाएं कुरुक्षेत्र पहुँच रही थीं। समय ने युगपरिवर्त के लिए इस सर्वनाश की रचना की थी। उसी भयावह और उदास वातावरण में भगवान श्रीकृष्ण ने एकांत में कर्ण से कहा,” तुम माता कुंती के पुत्र हो अंग राज! अपना पक्ष चुनने के पहले तनिक सोच लो।” कर्ण असमंजस में पड़े। एक ओर उनके सहोदर भाई थे, और दूसरी ओर वह दुर्योधन जिसने अपनी महत्वकांक्षा के लिए ही सही पर कर्ण को प्रतिष्ठा दिलाई थी। वे कुछ तय नहीं पा रहे थे। निराश कर्ण ने कहा,”जीवन का अंतिम चरण चल रहा है केशव! इस महाविनाश के उस पार केवल और केवल मृत्यु ही है। फिर ऐसे समय में मुझे यह कठोर सत्य बताने की क्या आवश्यकता थी? अच्छा तो यह होता कि मैं अपनी अज्ञानता के साथ ही वीरगति पा जाता।” “जानते हो कर्ण! इस आर्यावर्त के इस महासमर में मेरी भूमिका बस यही होगी कि मैं सबको उसके हिस्से का सत्य बता दूंगा। ताकि युद्ध के उपरांत समय के न्यायालय में कोई यह न कह सके कि हम अज्ञानता के कारण गलत पक्ष में चले गए थे। तुम्हारा सत्य तुम्हारे सामने है, अब उसको ध्यान में रख कर तुम अपना पक्ष चुनो।” कृष्ण दृढ़ थे। असमंजस में पड़े कर्ण ने कुछ समय के मौन के बाद,” दुर्योधन के प्रति आप मेरी निष्ठा और उसके कारण को भी जानते हैं केशव! मैं अपनी निष्ठा नहीं छोड़ सकता। तो क्या अपने मित्र या उपकारी के प्रति निष्ठावान होना धर्म नहीं है?”
कृष्ण मुस्कुरा उठे। कहा,” निष्ठा धर्म का अंग होती है, पर निष्ठा ही धर्म नहीं है अंगराज! कोई भी निर्णय परिस्थियों के आधार पर लेना चाहिए, अपनी प्रतिज्ञा या निष्ठा के आधार पर नहीं। जिस क्षण कोई व्यक्ति किसी अन्य के प्रति सदैव निष्ठावान रहने का निर्णय लेता है, या कोई प्रतिज्ञा करता है, तब उसे पता नहीं होता कि अगले क्षण की परिस्थिति कैसी होगी। जब आप पूर्व में लिए गए निर्णय के आधार पर वर्तमान के साथ व्यवहार करते हैं तो आप समय का अपमान करते हैं। और मनुष्य की सामर्थ्य नहीं कि वह समय का अपमान करके विजयी हो सके। आपको आज का निर्णय आज की परिस्थिति के आधार पर लेना चाहिए कर्ण, कल के आधार पर नहीं… “पर मैं अपना इतिहास कैसे भूल जाऊं प्रभु! मेरा वर्तमान तो मेरे अतीत पर ही टिका हुआ है न।” कर्ण विचलित हो कर भूमि पर ही बैठ गए थे। कृष्ण ने उत्तर दिया,”व्यक्ति में अपने इतिहास के प्रति मोह नहीं होना चाहिए कर्ण! इतिहास केवल और केवल इसीलिए होता है कि मनुष्य पूर्व में हुई गलतियों से सीख ले सके, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं… अब तुम अकेले निर्णय लो, हम चले।” कृष्ण चले गए, कर्ण दुविधा के सागर में डूबे बैठे रहे। वे जानते थे कि उनके अतीत के अपराध उन्हें सही पक्ष चुनने नहीं देंगे।
प्यास जो बुझ न सकी
श्रीकृष्ण स्वयं भी महाभारत रोक न सके। इस बात पर महामुनि उत्तंक को बड़ा क्रोध आ रहा था। दैवयोग से भगवान श्रीकृष्ण उसी दिन द्वारिका जाते हुए मुनि उत्तंक के आश्रम में आ पहुँचे। मुनि ने उन्हें देखते ही कटु शब्द कहना प्रारंभ किया आप इतने महाज्ञानी और सामर्थ्यवान होकर भी युद्ध नहीं रोक सके। आपको उसके लिये शाप दे दूँ तो क्या यह उचित न होगा ? भगवान कृष्ण हंसे और बोले- महामुनि! किसी को ज्ञान दिया जाये, समझाया-बुझाया और रास्ता दिखाया जाये तो भी वह विपरीत आचरण करे, तो इसमें ज्ञान देने वाले का क्या दोष ? यदि मैं स्वयं ही सब कुछ कर लेता, तो संसार के इतने सारे लोगों की क्या आवश्यकता थी ? मुनि का क्रोध शाँत न हुआ। लगता था वे मानेंगे नहीं- शाप दे ही देंगे। तब भगवान कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर कहा-महामुनि! मैंने आज तक किसी का अहित नहीं किया। निष्पाप व्यक्ति चट्टान की तरह सुदृढ़ होता है। आप शाप देकर देख लें, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। हाँ, आपको किसी वरदान की आवश्यकता हो तो हमसे अवश्य माँग लें। उत्तंक ने कहा- तो फिर आप ऐसा करें कि इस मरुस्थल में भी जल-वृष्टि हो और यहाँ भी सर्वत्र हरा-भरा हो जाये। कृष्ण ने कहा ‘तथास्तु’ और वहाँ से आगे बढ़ गये। महामुनि उत्तंक एक दिन प्रातःकालीन भ्रमण में कुछ दूर तक निकल गये। दिन चढ़ते ही धूल भरी आँधी आ गई और मुनि मरुस्थल में भटक गये। जब मरुद्गणों का कोप शाँत हुआ, तब उत्तंक ने अपने आपको निर्जन मरुस्थल में पड़ा पाया। धूप तप रही थी, प्यास के मारे उत्तंक के प्राण निकलने लगे। तभी महामुनि उत्तंक ने देखा चमड़े के पात्र में जल लिये एक चाँडाल सामने खड़ा है और पानी पीने के लिए कह रहा है। उत्तंक उत्तेजित हो उठे और बिगड़ कर बोले, शूद्र! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी शाप देकर भस्म कर दूँगा। चाँडाल होकर तू मुझे पानी पिलाने आया है। उनके साथ-साथ कृष्ण पर भी क्रोध आ गया। मुझे उस दिन मूर्ख बनाकर चले गये। पर आज उत्तंक के क्रोध से बचना कठिन है। जैसे ही शाप देने के लिए उन्होंने मुख खोला कि सामने भगवान श्रीकृष्ण दिखाई दिये। कृष्ण ने पूछा- नाराज न हों महामुनि! आप तो कहा करते हैं कि आत्मा ही आत्मा है, आत्मा ही इन्द्र और आत्मा ही साक्षात परमात्मा है। फिर आप ही बताइये कि इस चाँडाल की आत्मा में क्या इन्द्र नहीं थे ? यह इन्द्र ही थे, जो आपको अमृत पिलाने आये थे, पर आपने उसे ठुकरा दिया। बताइये, अब मैं आपकी कैसे सहायता कर सकता हूँ। यह कहकर भगवान कृष्ण भी वहाँ से अदृश्य हो गये और वह चाण्डाल भी। मुनि को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जाति, कुल और योग्यता के अभिमान में डूबे हुए मेरे जैसे व्यक्ति ने शास्त्र-ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बनाया तो फिर यदि कौरवों-पाँडवों ने श्रीकृष्ण की बात को नहीं माना तो इसमें उनका क्या दोष ? महापुरुष केवल मार्ग दर्शन कर सकते हैं। यदि कोई उस प्राप्त ज्ञान को आचरण में न लाये और यथार्थ लाभ से वंचित रहे, तो इसमें उनका क्या दोष?
भक्ति की सरलता
एक साधु थे उनका न कोई आश्रम न धर्मशाला न कोई ठिकाना जहाँ रात होती वही ठहर जाते और भिक्षा से जो मिलता भगवान का भोग लगाते। वृन्दावन की दो गोपियाँ जिन्होंने कभी भगवान के दर्शन नही किये न कभी मन्दिर गयी। प्रातः दधि मक्खन गागर में भरकर ले जाती बेचती और अपनी गृहस्थी में मगन रहती। दोनो गोपियों ने यह सुन रखा था कि साधु सन्तों के पास झोली में भगवान रहते है। एक दिन दोनों अपना दही बेचकर यमुना के निकट आयी। वहाँ देखा कि एक साधु अपनी झोली रखकर संध्या वन्दन हेतु स्नान करने गये है झोली एक वृक्ष के नीचे रखी है। कौतूहल वश झोली में भगवान हैं, भगवान कैसे हैं ? इस दृष्टि से दोनों ने चुपके से झोली उठाई और सारा सामान विखेर दिया, पर भगवान नही मिले। तभी उनकी नजर एक डिब्बे पर पडी। डिब्बा खोला तो देखा कि लड्डू गोपाल डिब्बे मे बन्द हैं। एक सखी बोलो–यही भगवान हैं। दूसरी बोली–कितने निर्दयी हैं ये सन्यासी भगवान को बन्द करके रखा है। पहली सखी–देखो बेचारे भगवान के हाथ पैर सब टेढे हो गये हैं। दूसरी–बेचारे बन्द जो रहते है। हाथ पैर हिलाने की जगह भी नही है। अब दोनों ने लड्डू गोपाल को उठाया बोली भगवान जी अब परेशान न हो अपने हाथ पैर सीधे कर लो और हम दही खिलाते है खा लो भूखे भी होंगे। दोनों ने भगवान की मूर्ति को सीधा करना शुरू किया। भगवन को भी उनकी सरलता पर आनन्द आ रहा था वह भी मुसुकरा रहे थे। जब वे थक गयी लेकिन हारी नही तो भगवान को हारना पडा। लड्डू गोपाल की मूर्ति सीधी हो गई। भगवान सीधे खडे गये। दोनों ने भगवान को नहलाया और दही खिलाया फिर बोली–’अब लेटो आराम करो।’ वह सीधी मूर्ति डिब्बे में नही जा रही थी। तब तक वह महात्मा जी आ गये दोनों डरकर भागी। महात्मा जी ने सोचा कि कुछ लेकर भागी हैं वह उनके पीछे दौडे लेकिन उन तक पहुँच नही पाये। लौटकर झोली देखी तो हतप्रभ रह गये। भगवान लड्डू गोपाल खडे हंस रहे थे। महात्मा सारी बात समझ गये। वह भगवान के चरणों मे गिर कर रोने लगे। वह खोजते हुए उन गोपियों के घर गये उनके भी चरण पकडकर रोने लगे। धन्य हो तुम दोनों आज तुम्हारे कारण भगवान के दर्शन हो गये। साराजीवन भर संग लिऐ घूमता रहा पर सरल नही बन पाया।
कथा भाव- नवधा भक्ति मे सरल भक्ति महत्वपूर्ण है। भगवान भाव और सरलता पर रीझते हैं। हम जीवन मे सरलता नही ला पाते यही हमारी बिडंबना है।
सहज प्रार्थना
एक बच्चा रोज अपने दादा जी को सायंकालीन पूजा करते देखता था। बच्चा भी उनकी इस पूजा को देखकर अंदर से स्वयं इस अनुष्ठान को पूर्ण करने की इच्छा रखता था, किन्तु दादा जी की उपस्थिति उसे अवसर नही देती थी। एक दिन दादा जी को शाम को आने में विलंब हुआ, इस अवसर का लाभ लेते हुए बच्चे ने समय पर पूजा प्रारम्भ कर दी। जब दादा जी आये, तो दीवार के पीछे से बच्चे की पूजा देख रहे थे। बच्चा बहुत सारी अगरबत्ती एवं अन्य सभी सामग्री का अनुष्ठान में यथाविधि प्रयोग करता है और फिर अपनी प्रार्थना में कहता है, भगवान जी प्रणाम।
आप मेरे दादा जी को स्वस्थ रखना और दादी के घुटनो के दर्द को ठीक कर देना क्योकि दादा-दादी को कुछ हो गया, तो मुझे चॉकलेट कौन देगा। फिर आगे कहता है, भगवान जी मेरे सभी दोस्तों को अच्छा रखना, वरना मेरे साथ कौन खेलेगा। फिर मेरे पापा और मम्मी को ठीक रखना, घर के कुत्ते को भी ठीक रखना, क्योकि उसे कुछ हो गया, तो घर को चोरों से कौन बचाएगा। ( लेकिन भगवान यदि आप बुरा न मानो तो एक बात कहू, सबका ध्यान रखना, लेकिन उससे पहले आप अपना ध्यान रखना, क्योकि आपको कुछ हो गया, तो हम सबका क्या होगा ) इस सहज प्रार्थना को सुनकर दादा की आंखों में भी आंसू आ गए, क्योकि ऐसी प्रार्थना उन्होंने न कभी की थी और न सुनी थी।
माँ-बाबा मुझको भूख लगी है कान्हा के प्रेम की कथा
एक गांव में एक निर्धन जुलाहा दम्पत्ति रहता था। जुलाहे के नाम था सुन्दर और उसकी पत्नी का नाम था लीला। दोनों पति-पत्नी अत्यंत परिश्रमी थे। सारा दिन परिश्रम करते सुन्दर-सुन्दर कपड़े बनाते, किन्तु उनको उनके बनाए वस्त्रों की अधिक कीमत नहीं मिल पाती थी। दोनों ही अत्यन्त संतोषी स्वाभाव के थे जो मिलता उसी से संतुष्ट हो कर एक टूटी-फूटी झोपडी में रहकर अपना जीवन-निर्वाह कर लेते थे। वह दोनों भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे, दिन भर के परिश्रम के बाद जो भी समय मिलता उसे दोनों भगवान के भजन-कीर्तन में व्यतीत करते। सुन्दर बाबा के पास एक तानपुरा और एक खड़ताल थी, जब दोनों मिलकर भजन गाते तो सुन्दर तानपुरा बजाता और लीला खड़ताल, फिर तो दोनों भगवान के भजन के ऐसा खो जाते की उनको अपनी भूख-प्यास की चिंता भी नहीं रहती थे। यूं तो दोनों संतोषी स्वाभाव के थे, अपनी दीन-हीन अवस्था के लिए उन्होंने कभी भगवान् को भी कोई उल्हाना नही दिया और अपने इसी जीवन में प्रसन्न थे किन्तु एक दुःख उनको सदा कचोटता रहता था, उनके कोई संतान नहीं थी। इसको लेकर वह सदा चिंतित रहा करते थे, किन्तु रहते थे फिर भी सदा भगवान में मग्न, इसको भी उन्होंने भगवान की लीला समझ कर स्वीकार कर लिया और निष्काम रूप से श्री कृष्ण के प्रेम-भक्ति में डूबे रहते। जब उनकी आयु अधिक होने लगी तो एक दिन लीला ने सुन्दर से कहा कि हमारी कोई संतान नहीं है, कहते है की संतान के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती, अब हमारी आयु भी अधिक को चली है, ना जाने कब बुलावा आ जाए, मरने की बाद कौन हमारी चिता को अग्नि देगा और कौन हमारे लिए तर्पण आदि का कार्य करेगा, कैसे हमारी मुक्ति होगी। सुन्दर बोला तू क्यों चिंता करती है, ठाकुर जी है ना वही सब देखेंगे। सुन्दर ने यह बात कह तो दी किन्तु वह भी चिंता में डूब गया, तभी उसके मन में एक विचार आया वह नगर में गया और श्री कृष्ण के बाल गोपाल रूप की एक प्रतीमा ले आया। घर आ कर बोला अब तुझे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है में यह बाल गोपाल लेकर आया हूँ, हमारे कोई संतान नहीं तो वह भी इन्ही की तो लीला है, हम इनको ही अपने पुत्र की सामान प्रेम करेंगे, यही हमारे पुत्र का दाईत्व पूर्ण करेंगे यही हमारी मुक्ति करेंगे। सुन्दर की बात सुन कर लीला अत्यंत प्रसन्न हुई, उसने बाल गोपाल को लेकर अपने हृदय से लगा लिया और बोली आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, आज से यही हमारा लल्ला है। दोनों पति-पत्नी ने घर में एक कोना साफ़ करके वहां के स्थान बनाया और एक चौकी लगा कर उसपर बाल गोपाल को विराजित कर दिया। तब से जुलाहा दंपत्ति का नियम हो गया वह प्रतिदिन बाल गोपाल को स्नान कराते उनको धुले वस्त्र पहनाते अपनी संतान की तरह उनको लाड-लडाते, उन्ही के सामने बैठ कर भजन कीर्तन करते और वहीं सो जाते। जुलाहा अपने हाथ से बाल गोपाल के लिए सुन्दर वस्त्र बनाता और उनको पहनता इसमें उसको बड़ा आनदं आता। धीरे-धीरे दोनों बाल गोपाल को अपनी संतान के सामान ही प्रेम करने लगे। लीला का नियम था की वह प्रति दिन अपने हाथ से अपने लल्ला को भोजन कराती तब स्वयं भोजन करती, लल्ला को भोजन कराते समय उसको ऐसा ही प्रतीत होता मानो अपने पुत्र को ही भोजन करा रही हो। उन दोनों के निश्चल प्रेम को देख कर करुणा निधान भगवान् अत्यन्त्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अदृश्य रूप में आकर स्वयं भोजन खाना आरम्भ कर दिया, लीला जब प्रेम पूर्वक बाल गोपाल को भोजन कराती तो भगवान् को प्रतीत होता मानो वह अपनी माँ के हाथो से भोजन कर रहें हैं, उनको लीला के हाथ से प्रेम पूर्वक मिलने वाले हर कौर में माँ का प्रेम प्राप्त होता था, लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण स्वयं माँ की उस प्रेम लीला के वशीभूत हो गए। किन्तु लीला कभी नहीं जान पाई कि स्वयं बाल-गोपाल उसके हाथ से भोजन करते हैं। एक दिन कार्य बहुत अधिक होने के कारण लीला बाल गोपाल को भोजन कराना भूल गई। गर्मी का समय था भरी दोपहरी में दोनों पति-पत्नी कार्य करते-करते थक गए और बिना भोजन किए ही सो गए, उनको सोए हुए कुछ ही देर हुई थी कि उनको एक आवाज सुनाई दी माँ-बाबा मुझको भूख लगी है दोनों हड़बड़ा कर उठ गए, चारो और देखा आवाज कहाँ से आई है, किन्तु कुछ दिखाई नहीं दिया। तभी लीला को स्मरण हुआ की उसने अपने लल्ला को भोजन नहीं कराया, वह दौड़ कर लल्ला के पास पहुंची तो देखा की बाल गोपाल का मुख कुम्हलाया हुआ है, इतना देखते ही दोनों पति-पत्नी वहीं उनके चरणो में गिर पड़े, दोनों की आँखों से आसुओं की धार बह निकली, लीला तुरंत भोजन लेकर आई और ना जाने कैसा प्रेम उमड़ा की लल्ला को उठा कर अपनी गोद में बैठा लिया और भोजन कराने लगी, दोनों पति-पत्नी रोते जाते और लल्ला को भोजन कराते जाते, साथ ही बार-बार उनसे अपने अपराध के लिए क्षमा मांगे जाते, ऐसा प्रगाढ़ प्रेम देख कर भगवान अत्यंत द्रवित हुए और अन्तर्यामी भगवान श्रीहरि साक्षात् रूप में प्रकट हो गए। भगवान् ने अपने हाथों से अपने रोते हुए माता-पिता की आँखों से आंसू पोंछे और बोले “प्रिय भक्त में तुम्हारी भक्ति और प्रेम से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वर माँग लो मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करूँगा” इतना सुनते ही दोनों भगवान के चरणो में गिर पड़े और बोले “दया निधान आप हमसे प्रसन्न हैं और स्वयं हमारे सम्मुख उपस्थित है, हमारा जीवन धन्य हो गया, इससे अधिक और क्या चाहिए, इससे अधिक किसी भी वस्तु का भला क्या महत्त्व हो सकता है, आपकी कृपा हम पर बनी रहे बस इतनी कृपा करें” श्रीहरि बोले “यदि तुम चाहो तो में तुम्हारे जीवन में संतान के आभाव को समाप्त कर के तुम्हे एक सुन्दर संतान प्रदान करूँगा” यह सुनते ही सुन्दर और लीला एकदम व्याकुल होकर बोले “नही भगवन् हमको संतान नहीं चाहिये” उनका उत्तर सुनकर भगवान ने पूंछा “किन्तु क्यों ! अपने जीवन में संतान की कमी को पूर्ण करने के लिए ही तो तुम मुझ को अपने घर लेकर आये थे ” यह सुनकर वह दोनों बोले प्रभु हमको भय है कि यदि हमको संतान प्राप्त हो गई तो हमारा मोह उस संतान के प्रति बड़ जाएगा और तब हम आपकी सेवा नहीं कर पाएंगे” उनका प्रेम और भक्ति से भरा उत्तर सुनकर करुणा निधान भगवान् करुणा से भर उठे, स्वयं भगवान् की आँखों से आँसू टपक पड़े वह बोले, “हे मैया, बाबा में यहाँ आया था आपके ऋण को उतारने के लिए किन्तु आपने तो मुझको सदा-सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया, में आपके प्रेम का यह ऋण कभी नहीं उतार पाउँगा, में सदा-सदा तुम दोनों का ऋणी रहूँगा, में तुम्हारे प्रेम से अत्यंत प्रसन्न हूँ तुमने अपने निर्मल प्रेम से मुझको भी अपने बंधन में बांध लिया है में तुमको वचन देता हूँ कि आज से में तुम्हारे पुत्र के रूप में तुम्हारे समस्त कार्य पूर्ण करूँगा तुमको कभी संतान का आभाव नहीं होने दूंगा, मेरा वचन कभी असत्य नहीं होता” ऐसा कह कर भक्तवत्सल भगवान् बाल गोपाल की प्रतिमा में विलीन हो गए। उस दिन से सुन्दर और लीला का जीवन बिल्कुल ही बदल गया उन्होंने सारा काम-धंधा छोड़ दिया और सारा दिन बाल गोपाल के भजन-कीर्तन और उनकी सेवा में व्यतीत करने लगे। उनको ना भूख-सताती थी ना प्यास लगती थी, सभी प्रकार की इच्छाओं का उन्होंने पूर्ण रूप से त्याग कर दिया, सुन्दर कभी कोई कार्य करता तो केवल अपने बाल गोपाल के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्र बनाने का। उनके सामने जब भी कोई परेशानी आती बाल गोपाल तुरंत ही एक बालक के रूप में उपस्तिथ हो जाते और उनके समस्त कार्य पूर्ण करते । वह दंपत्ति और बालक गांव भर में चर्चा का विषय बन गए, किन्तु गाँव में कोई भी यह नहीं जान पाया की वह बालक कौन है, कहाँ से आता है, और कहाँ चला जाता है। धीरे-धीरे समय बीतने लगा, जुलाह दंपत्ति बूढ़े हो गए, किन्तु भगवान की कृपा उन पर बनी रही, अब दोनों की आयु पूर्ण होने का समय आ चला था भगवत प्रेरणा से उनको यह ज्ञात हो गया की अब उनका समय पूरा होने वाला है, एक दिन दोनों ने भगवान को पुकारा ठाकुर जी तुरंत प्रकट हो गए और उनसे उनकी इच्छा जाननी चाही, दोनों भक्त दम्पत्ति भगवान के चरणो में प्रणाम करके बोले “है नाथ हमने अपने पूरे जीवन में आपसे कभी कुछ नहीं माँगा, अब जीवन का अंतिम अमय आ गया है, इसलिए आपसे कुछ मांगना चाहते हैं” भगवान बोले “निःसंकोच अपनी कोई भी इच्छा कहो में वचन देता हूँ कि तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा” तब बाल गोपाल के अगाध प्रेम में डूबे उस वृद्ध दम्पति बोले “हे नाथ हमने अपने पुत्र के रूप में आपको देखा, और आपकी सेवा की आपने भी पुत्र के समान ही हमारी सेवा करी अब वह समय आ गया है जिसके लिए कोई भी माता-पिता पुत्र की कामना करते हैं, है दीनबंधु हमारी इच्छा है की हम दोनों पति-पत्नी के प्राण एक साथ निकले और है दया निधान जिस प्रकार एक पुत्र अपने माता-पिता की अंतिम क्रिया करता है, और उनको मुक्ति प्रदान करता है, उसी प्रकार है परमेश्वर हमारी अंतिम क्रिया आप अपने हाथो से करें और हमको मुक्ति प्रदान करें” श्रीहरि ने दोनों को उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया और बाल गोपाल के विग्रह में विलीन हो गए। अंत में वह दिन आ पहुंचा जब प्रत्येक जीव को यह शरीर छोड़ना पड़ता है, दोनों वृद्ध दम्पति बीमार पड़ गए, उन दोनों की भक्ति की चर्चा गांव भर में थी इसलिए गांव के लोग उनका हाल जानने उनकी झोपडी पर पहुंचे, किन्तु उन दोनों का ध्यान तो श्रीहरि में रम चुका था उनको नही पता कि कोई आया भी है, नियत समय पर एक चमत्कार हुआ जुलाहे की झोपड़ी एक तीर्व और आलौकिक प्रकाश से भर उठी, वहां उपस्थित समस्त लोगो की आँखे बंद हो गई, किसी को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था, कुछ लोग तो झोपडी से बाहर आ गए कुछ वही धरती पर बैठ गए। श्री हरी आपने दिव्य चतर्भुज रूप में प्रकट हुए, उनकी अप्रितम शोभा समस्त सृष्टि को आलौकित करने वाली थी, वातावरण में एक दिव्य सुगंध भर गई, अपनी मंद-मंद मुस्कान से अपने उन भक्त माता-पिता की और देखते रहे, उनका यह दिव्य रूप देख कर दोनों वृद्ध अत्यंत आनंदित हुए, अपने दिव्य दर्शनों से दोनों को तृप्त करने के बाद करुणा निधान, लीलाधारी, समस्त सृष्टि के पालन हार श्री हरी, वही उन दोनों के निकट धरती पर ही उनके सिरहाने बैठ गए, भगवान् ने उन दोनों भक्तों का सर अपनी गोद में रखा, उनके शीश पर प्रेम पूर्वक अपना हाथ रखा, तत्पश्चात अपने हाथो से उनके नेत्र बंद कर दिए, तत्काल ही दोनों के प्राण निकल कर श्री हरी में विलीन हो गए, पंचभूतों से बना शरीर पंच भूतो में विलीन हो गया। कुछ समय बाद जब वह दिव्य प्रकाश का लोप हुआ तो सभी उपस्थित ग्रामीणो ने देखा की वहां ना तो सुन्दर था, ना ही लीला थी और ना ही बाल गोपाल थे। शेष थे तो मात्र कुछ पुष्प जो धरती पर पड़े थे और एक दिव्य सुगंध जो वातावरण में चहुं और फैली थी। विस्मित ग्रामीणो ने श्रद्धा से उस धरती को नमन किया, उन पुष्पों को उठा कर शीश से लगाया तथा सुंदर, लीला की भक्ति और गोविन्द के नाम का गुणगान करते हुए चल दिए उन पुष्पों के श्री गंगा जी में विसर्जित करने के लिए। मित्रोभक्त वह है जो एक क्षण के लिए भी विभक्त नहीं होता, अर्थात जिसका चित्त ईश्वर में अखंड बना रहे वह भक्त कहलाता है। सरल शब्दों में भक्ति के अंतिम चरण का अनुभव करने वाले को भक्त कहते है।
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