स्वामी विवेकानंद के जीवन के 5 प्रेरक-प्रसंग
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे जिनके आदर्श आज हमारे लिए एक अच्छे जीवन जीने की सीख देते है।, जिन्होंने पूरे विश्व में भ्रमंण कर भारत के गौरव को ही नहीं बढ़ाया बल्कि पुरे संसार में भारत का नाम गोरवानित किया। 39 वर्ष की अल्पायु में इस दुनिया से जाने के बाद भी उनके विचार आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं उनके आदर्श हमारे लिए एक सच्चा रास्ता है सफल जीवन का। यहां हम उनके जीवन ड़े 3 छोटे-छोटे प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है जिस से आप भी अपना जीवन सफल बना सको।
पहला प्रसंग: हम छोटों से भी ज्ञान की बाते सीख सकते हैं
एक बार कि बात है। स्वामी विवेकानन्द भारत भ्रमण करते हुए खेतरी के राजा के पास गए। राजा ने उनका बहुत आदर और सम्मान किया। स्वामी जी की बातो से राजा बहुत अधिक प्रभावित हूवे । उनके सम्मान में राजा जी ने एक भजन गायिका व नर्तकी बुलायी। जब स्वामी जी ने नर्तकी को देखा तो इच्छा हुई, अब यहाँ से चलें। राजा ने उनसे आग्रह किया ओर उनको बैठा लिया अपने साथ।
नर्तकी ने गाना शुरू किया
‘प्रभुजी अवगुन चित ना धरो’ भाव था
‘हे नाथ! आप समदर्शी हैं
लोहा कसाई की कटार में है, वही मन्दिर के कलश में है।
पारस इसमें भेद नहीं करता। वह दोनों को अपने स्पर्श से कुन्दन बना देता है।
जल यमुना का हो या नाले का,
दोनों जब गंगा में गिरते हैं, गंगा-जल हो जाते हैं।
‘ हे नाथ फिर यह भेद क्यों?
आप मुझे शरण में लीजिए।’
यह सुनकर स्वामी जी की आँखों से आसुं की धारा बह चली। एक संन्यासी को सचमुच एक नर्तकी के द्वारा अट्ठैत वेदान्त की शिक्षा मिली।
दूसरा प्रसंग: प्रभावशाली भाषण के लिए भाव व अंदर की शांति चाहिए
यह प्रसंग स्वामीजी द्वारा शिकागो के सबसे बड़े विश्व धर्म सम्मेलन में दिये गए भाषण के बारे मे है। उनका यह भाषण विश्व प्रसिद्ध भाषण में से एक है।
आज वह शुभ दिन आ गया। स्वामी विवेकानन्द देश-विदेश के प्रतिनिधियों के साथ मंच पर विराजमान हैं। हर धर्म के प्रतिनिधि को कुछ मिनटों में अपना परिचय देना है। हर व्यक्ति अपने अपने धर्म के बारे में बताएंगे। सभी धर्म के प्रतिनिधि एक-एक कर के उठते हैं, अपना परिचय देते हैं, बैठ जाते हैं, विवेकानन्द भी उठे और सर्व प्रथम शब्द उनके मुख से निकला- ‘प्रिय, अमरीका के भाइयो एवं बहनो!‘ जैसे ही उन्होने ये शब्द बोले सभाकक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। चारों तरफ तालियां ही तालियां बजने लगीं कुछ लोग खड़े होकर इनका अभिनन्दन करने लगे।कुछ लोगों ने इनका आदर किया सभी लोगों ने इतनी तालियां बजाईं की तालियों का स्वर बढ़ता ही जा रहा था।
इसका शाश्वत संदेश है- दूसरों को समझो, ग्रहण करो, दूसरों की भावनाओं का आदर करना सीखो। हिन्दू को न बौद्ध बनने की आवश्यकता है, न बौद्ध बौद्ध को ईसाई, सभी धर्म अपनी जगह ठीक हैं। एक-दूसरे को जानने समझने की आवश्यकता है’ उन्होंने अन्तिम शब्द ये कहे,
भाइयों और बहनों’ का ये पावन सम्बोधन अमरीका वासियों की हृदय को छू गया। दूसरे दिन समस्त अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर स्वामी विवेकानन्द का ही चित्र छपा था।
अमेरिका के एक रिपोर्टर ने कहा की ‘उनके पास शब्दों को पकड़ने की प्रतिभा थी। उनको ये पता था की कहा पर क्या बोलना है और उनकी आत्मा की जाली में सफेद गर्म हथौड़े से जलते हुए वाक्यांश थे, ताकि वे हजारों लोगों को पार कर सकें। उनके बोले गए सभी शब्दो ने सभी अमरीका वासियों के दिल मे जगह बना ली।
जल्द ही हर धर्म के बैनर पर प्रतिरोध के बजाय लिखा जाएगा- लड़ाई नहीं, मदद करो, आत्मसात करो और विनाश नहीं, सद्भाव और शांति और असंतोष नहीं।
उनके इन शब्दों से चारों तरफ से सभी धर्मो के लोगो ने उनका आदर सत्कार किया। सभी लोगों ने जाना की भारत देश के सभ्य पुरुष है।
तीसरा प्रसंग: प्रेरणा कहीं सेऔर किसी भी वस्तु से मिल सकती है
पोरबन्दर के एक पंडित ने कहा, ‘स्वामी जी, यहाँ भारत में अनेक धर्म के अनेक पंडित हैं, यहां सभी अपने धर्म को अधिक महत्व देते है आपकी बात कौन सुनेगा?’ आप विश्व समेलन में जाएँ। स्वामी विवेकानन्द अमरीका गए। कुछ दिन घूमने के बाद उनकी जमा पूँजी समाप्त हो गयी। वहा किसी अच्छे व्यक्ति ने उन्हें वोस्टन जाने का किराया दिया और विश्वधर्म सम्मेलन मे समलित होने के लिए एक सदस्य के नाम पत्र भी दिया। वह पत्र भी उनसे कही रास्ते मे खो गया। वहा पर इतनी अधिक सर्दी थी की उनको लकड़ी के बक्से में रात बितानी पड़ी। सुबह वो अपनी मंजिल की तरफ पैदल ही चल पड़े। पैदल चलने से थकान आ गई। वो थक कर एक आलीशान भवन के नीचे बैठ गए और सोचने लगे अब क्या करूँ? पत्र भी खो गया। धर्म सम्मेलन में प्रवेश कैसे मिलेगा? अन्ततः ईश्वर ने उनकी बात सुन ली। उस महल से एक महिला स्वामी जी को एक टक देख रही थी। उसने इन्हें ऊपर बुलाया। यह श्रीमती एच. डब्ल्यू. हैल थी। उस महिला की पहुँच इस विश्व सम्मलेन के सदस्यों तक थी। बस! स्वामी जी को अनौपचारिक तरीके से ही सही सम्मेलन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया और सम्मलेन में जाने का अवसर मिल गया।
चौथा प्रसंग: सेवा ही परम धर्म है
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पिछली सदी के प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार श्री सखाराम गदेड़स्कर एक बार अपने दो मित्रों के साथ स्वामी विवेकानंद जी से मिलने गए। बात करते समय विवेकानंद जी ने उनके बोलने के भाव से पता लगा लिया की उनमें से एक व्यक्ति पंजाब के निवासी है। उन दिनों पंजाब में 1-2 वर्षों से बारिश नहीं हुई थी, जिस वजह से पंजाब में भीषण अकाल पड़ा था। पंजाब की हालत अच्छी नहीं थी। स्वामी जी ने पंजाब के लोगों के बारे मे बात की उनको कैसे इस दुख से बाहर निकाले इस पर बात चीत की गई। और पीड़ितों के लिए क्या-क्या राहत-कार्य किए जा रहे है, उस बारे में बाते की गई। उसके बाद वो शिक्षा तथा नैतिक एवं सामाजिक उन्नति के बारे में बातें करते रहे। उन्होने बताया कि समाज मे वायप्क बुराई मोजूद है उन से कैसे सामना करे। स्वामी जी के साथ सभी मुद्दों पर विचार विमर्स के बाद अन्त में जाते समय उस पंजाबी गृहस्थ ने विनयपूर्वक कहा – “स्वामी जी, मैं तो आपसे इस इच्छा से मिलने आया था कि आप धर्म-अध्यात्म के विषय में कुछ उत्कृष्ट बातें बताएंगे; उन बातो को आदर्श बना के हम भी आपके जैसे सफल इंसान बन सके लेकिन आप तो सूखा तथा शिक्षा जैसे सामान्य विषयों की ही बातें करते रहे।”
स्वामी जी कुछ पल के लिए बिल्कुल चुप रहे, स्वामी जी ने उनकी पुरी बात सुनी और फिर गंभीरता से बाले – ” भाईसाहब, जब तक मेरे भारत देश में कोई भी व्यक्ति भूखा है, तब मेरा प्रथम कर्तव्य उनके लिए अन्न की व्यवस्था करना, उनका ध्यान रखना मेरा धर्म है , यही सबसे बड़ा धर्म एवं पूर्णय का कार्य है। इसके अलावा जो कुछ भी है, वह मिथ्या या दिखावा है। जो लोग भूखे हो, जिनका पेट में अन्न का एक दाना भर भी ना हो, उनके सम्मुख धर्म का उपदेश देना मात्र केवल दिखावा है। पहले उनके लिए अन्न की व्यवस्था करने का प्रयत्न करना चाहिए।”यही हमारा धर्म है इंसानियत से बढ़ा कोई धर्म नही होता है।
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